पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
दया तो प्रकृति की देन है, क्रूरता सिखलाई जाती है। प्रेम कोई सीखने की बात नहीं है, यह मनुष्य का स्वभाव है। जिस प्रकार स्वस्थ रहना, सुखी रहना, आनंदित रहना, मनुष्य की चाहत है, उसी प्रकार प्रेम करना, प्रेम का अनुभव करना और अपने जीवन को प्रेममय बनाना भी मनुष्य की चाहत है। दरअसल, प्रेम की स्वाभाविक चाहत से विमुख होना बीमारी का लक्षण है। इस दुनिया में प्रेम के सिवाय और कुछ है ही नहीं। नदियाँ सागर से प्रेम करती हैं, भंवरे फूल से प्रेम करते हैं, चांद, सूरज, ग्रह नक्षत्र सभी एक-दूसरे से प्रेम करते हुए हमें जीवनदान देते हैं तो ऐसा मान लेना चाहिए कि प्रकृति में प्रेम के सिवा और कुछ नहीं है। ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, हिंसा, क्रोध इन सभी को विकार कहा गया है। इन विकारों के जीवन में आते ही मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृक्तियाँ विकृत हो जाती हैं। इसलिए जब कभी हम अप्रेम की बात सोचते हैं तो उसमें हमारे व्यक्तित्व का मूल स्वरूप नष्ट हो जाता है। इसलिए हमारा अपना स्वरूप है – प्रेम स्वाध्याय और शालीनता …।
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जैसे ही ये परिवर्तन होते हैं, हमारी सारी दिनचर्या ही बदल जाती है। सत्य को वाणी का तप कहा गया है। इसका अर्थ है कि सत्य बोलने वाले व्यक्ति का मन निर्मल होना चाहिए। उसमें किसी से दुराव – छिपाव या चोरी का भाव नहीं होना चाहिए। जो लोग मन, वाणी और कर्म की अभेदता साध लेते हैं, उन्हें सत्य का साक्षात्कार अवश्य होता है। सत्य कहीं बाहर से नहीं आता। यह मनुष्य के स्वभाव का ही एक आधार है। हमारे मन में ही क्रोध, आवेश, स्नेह आदि सभी प्रवृत्तियां उपस्थित रहती हैं। इनके मेल से हमारा स्वभाव बनता है, पर स्वभाव के निर्माण में हमारे संस्कार, सामाजिक परिवेश, शिक्षा और संयम आदि का भी काफी योगदान होता है। हमारे व्यक्तित्व में हमारे स्वभाव का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। श्रीमद्भगवद् गीता में तो यहां तक कहा गया है कि जैसा स्वभाव वैसा मनुष्य। स्वभाव जितना सरल, कुंठामुक्त, पूर्वाग्रह रहित, शांत तथा सत्याचरण से युक्त होगा, मनुष्य उतना ही सहृदय, उदार एवं दयालु होगा। हमारे जीवन मे धर्म तभी घटित होगा जब हम अहिंसा, संयम और तप का आचरण करेंगे। इस आचरण के द्वारा हमें आत्म अनुभूति होगी और उससे आत्म-रमण और आत्म-चिन्तन के द्वारा हम धर्म को अपने भीतर तक उतार पायेंगे …।
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