पूज्य सद्गुरुदेव अवधेशानंद जी महाराज आशिषवचनम्

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
            ।। श्री: कृपा ।।
???? पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – अविच्छिन्न एवं सतत प्रभु नाम स्मरण, पारमार्थिक प्रवृत्तियाँ और स्वाध्याय भगवदीय-अनुग्रह अनुभूत करने में सहायक हैं…! पारमार्थिक मार्ग ही श्रेष्ठ मार्ग है। परमार्थ का चिंतन करने वाले को मिलते हैं – परमात्मा। राम के ध्यान मात्र से मन शुद्ध होता है। संसार का चिंतन करने से मन में विकार आते हैं। परमात्मा का चिंतन करने से पापों से मुक्ति मिलती है। पारमार्थिक विचार मनुष्य को श्रेष्ठता की ओर लेकर जातें है। बाहरी स्वच्छता के साथ-साथ भीतरी स्वच्छता भी आवश्यक है। किसी भी धर्म की आत्मा अन्तःकरण की पवित्रता, अनुशासन एवं नैतिकता होती है। वैचारिक पावित्र्य, भाव-शुचिता और पारमार्थिक चिंतन जीवन की उन्नत अवस्था करने वाले साधन हैं। अनन्त सत्ता एकमात्र ब्रह्म ही हैं, इसलिये उनके भाव में प्रतिष्ठत होने पर जीव की सभी तृष्णायें निवृत हो जाती हैं। इस कठिन कलिकाल में प्रतिपल भगवान के नाम, गुण, रूप, लीला आदि का स्मरण, उनका चिंतन, मनन, संकीर्तन आदि करना श्रयेस्कर है। उनके प्रेम में तन्मय रहना, उदारता, पारमार्थिक विचार, निष्कामता एवं सत्संग ही भवतारक के साधन हैं…।
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – पारमार्थिक उन्नति इस मनुष्य जन्म में ही प्राप्त हो सकती है। कारण कि, इसी के लिये यह मनुष्य जन्म मिला है। पर, इस कार्य के लिये आपकी कितनी तत्परता है, यह अपने भीतर विचार करें। शास्त्र कहता है कि करोड़ों काम बिगड़ते हों तो बिगड़ जायँ, पर भगवान का स्मरण-भजन मत छोड़ो। मनुष्य के विचार भावना और प्रतिक्रिया ही अन्तःकरण का प्रकटीकरण है। हर एक साधक को अपना आत्म निरक्षण करना चाहिए। मनुष्य की विशेष शक्तियाँ बुद्धि तथा विचारशीलता ही हैं। ईश्वर ने बुद्धि-शक्ति की कोई सीमा निश्चित नहीं की है। मनुष्य की बुद्धि शक्ति के सम्मुख कुछ भी असाधारण नहीं। अपनी इस बुद्धि बल के सदुपयोग से मनुष्य ने संसार सजा दिया है। आज आवश्यक है कि मनुष्य अपनी शक्ति एवं स्वरूप का स्मरण करे जिससे अपनी वर्तमान स्थिति के प्रति उसे अपने स्वरूप का ज्ञान हो। सारी साधनाओं का एक ही सार है- अन्तःकरण की पवित्रता। पवित्रता की शक्ति अपार है। उसका कोई अंत नहीं…।
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – शुभ, सकारात्मक और पारमार्थिक विचार ही आनन्द और ऊर्जा प्रदान करते हैं। तत्व ज्ञान और विज्ञान दोनों के आधार चिंतन है। जगत चिंता करता है जबकि भक्त चिंतन। चिंता हमारी इच्छाशक्ति और संकट का सामना करने की शक्ति को कम करती है। इसलिये चिंता नहीं चिंतन करें, जिससे समस्या सुलझ सके। पूज्य आचार्यश्री ने कहा कि चिंता और चिता एक समान हैं। चिंता मनुष्य को जिंदा जलाती है और चिता मरे हुए को। जीव चिंता छोड़कर भगवान का चिंतन करे। चिंतन, भजन और मनन करने से काम, क्रोध, लोभ और मोह से मुक्ति मिलती है। संसारिक सुख का त्याग करना ही जीवन की सच्ची कसौटी होती है। इच्छाओं की पूर्ति होने पर अंहकार बढ़ जाता है। आत्मा की आवाज के अनुसार जो भी कार्य किए जाते हैं वे मुक्ति एवं भक्ति के मार्ग पर चलने का साधन होते हैं। मानव शरीर पाकर व्यक्ति को संसारिक सुखों का त्याग कर प्रभु भक्ति करनी चाहिए, जिससे जीवन सफल हो सके। स्वार्थी व्यक्ति समाज के हित की नहीं सोच सकता, जबकि परमार्थी को सभी जगह सम्मान मिलता है। संत परमार्थी होते हैं। अतः परमार्थ का चिंतन करने वाला ही परमात्मा को प्राप्त करता है…।

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