पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – मन-वचन-कर्म में एकता, भाव-शुचिता, सत-कर्म प्रीति और समर्पण ही साधना का सार है…! विशुद्ध ब्रह्मलोक उन्हें प्राप्त होता है जिनके अन्तःकरण में असत्य, छल, कपट और कुटिलता नहीं है। सत्य का चिन्ह “मन कर्म और वचन की एकता है।” वां मनर्स्कमणाँ याथार्थं सत्यम्…। जो बात मन से हो वही वचन से प्रकट की जाए और जो वचन कहा जाए वही कार्य रूप में भी हो। इस प्रकार की त्रिविध एकता ही सत्य का लक्षण है। जो लोग कहते हैं कुछ और, करते हैं कुछ तब उनके कहने और करने का कुछ ठिकाना नहीं है। संत दादू के ये वचन एक साधक को सावधान करने वाले हैं – “ऐसा व्यक्ति जो मन, वाणी और कर्म में एकता स्थापित नहीं कर पाता नीतिकारों की दृष्टि में दुरात्मा है …” अर्थात्, उसके व्यक्तित्व का विकास नहीं हुआ है। ऐसे व्यक्ति की ओर ही श्रीराम संकेत करते हैं – मोहे कपट छल छिद्र न भावा। असुरक्षा की भावना का मन में होना और विषय-सुख की कामना ही ऐसे व्यवहार का आधार है। इसके विपरीत-निर्मल मन जन सो मोहि पावा। जिनका मन निर्मल होता है, अर्थात्, मन, वाणी और कर्म से जो एक होते हैं, जो भीतर और बाहर से एक हैं, भगवत्ता को वे ही प्राप्त करते हैं। उपनिषदों के ऋषि कहते हैं कि यह अंतर अज्ञान का परिणाम है। अपने स्वरूप को न जानने से ही अलग-अलग रूपों की सत्यता का आभास होता है और जीव उन्हें सत्यरूप देने का व्यर्थ प्रयास करता है। मुखौटा वही पहनता है, जो कुछ छिपाना चाहता है। किसी शायर ने ’इंसान’ उसे माना है जो खुले दिलवाला है- जब मिलो, जिससे मिलो दिल खोलकर दिल से मिलो … इससे बढ़कर और कोई चीज इंसान में नहीं…।
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