पूज्य सद्गुरुदेव अवधेशानंद जी महाराज आशिषवचनम्

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
            ।। श्री: कृपा ।।
???? पूज्य “सदगुरुदेव” जी ने “गुरुपूर्णिमा पर्व” के पावन अवसर पर शुभकामनायें देते हुए कहा – सभी के अंतस में आध्यात्मिक आकाँक्षा, सत्य-निष्ठा और स्वरूप अनुसंधान की भावना बलवती हो, सर्वथा शुभ हो। भारतीय इतिहास गुरु-शिष्य संबंधों की गाथाओं से भरा पड़ा है। समय-समय पर गुरुओं ने जन-कल्याण के लिये मंत्र दिया, जिसे उनके शिष्यों ने दूर-दूर तक प्रसारित एवं प्रचारित किया। इस संबंध की स्मृति में आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा का यह पावन पर्व अनादिकाल से मनाया जाता रहा है। परंतु इसे महर्षि व्यास ने अधिक व्यापक बनाया। इस कारण इसे व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं। गुरु के प्रति नतमस्तक होकर कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है – गुरुपूर्णिमा। गुरु के लिए पूर्णिमा से बढ़कर और कोई तिथि नहीं हो सकती। जो स्वयं में पूर्ण है, वही तो पूर्णत्व की प्राप्ति दूसरों को करा सकता है। पूर्णिमा के चंद्रमा की भांति जिसके जीवन में केवल प्रकाश है, वही तो अपने शिष्यों के अंत:करण में ज्ञान रूपी चंद्र की किरणें बिखेर सकता है। इस दिन हमें अपने गुरुजनों के चरणों में अपनी समस्त श्रद्धा अर्पित कर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए। गुरु कृपा असंभव को संभव बनाती है। गुरु कृपा शिष्य के हृदय में अगाध ज्ञान का संचार करती है। गुरु का दर्जा भगवान के बराबर माना जाता है, क्योंकि गुरु, व्यक्ति और सर्वशक्तिमान के बीच एक कड़ी का काम करता है। संस्कृत के शब्द गु का अर्थ है – अन्धकार और रु का अर्थ है – उस अंधकार को मिटाने वाला। आत्मबल को जगाने का काम गुरु ही करता है। गुरु अपने आत्मबल द्वारा शिष्य में ऐसी प्रेरणाएं भरता है, जिससे कि वह अच्छे मार्ग पर चल सके। साधना मार्ग के अवरोधों एवं विघ्नों के निवारण में गुरु का असाधारण योगदान है। गुरु शिष्य को अंत: शक्ति से ही परिचित नहीं कराता, बल्कि उसे जागृत एवं विकसित करने के हर संभव उपाय भी बताता है….।
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मनुष्य की आध्यात्मिक माँग की पूर्ति है – सद्गुरू; जो बोधगम्यता का मूलभूत स्रोत है…! गुरु का अर्थ है – जो बोध दे, समाधान दे और द्वंद से मुक्ति में सहायक बने, जो दुर्बोध को सुबोध कर दे, वही गुरु है। ज्ञान गुरु है। उपदेश गुरु है। जो कठिन को सरल बना दे, दूर को पास कर दे, अलभ्य को लभ्य कर दे, वही गुरु है। शब्द गुरु है। काया और माया से जो हमें मुक्त करा दे, इस विनाशी शरीर से जो हमें अविनाशी का बोध करा दे, बिंदु से जो हमें सिंधु बना दे, और जिनका ध्यान करने से मृत्यु की भी मृत्यु हो जाये, उस तत्व को गुरुतत्व कहते हैं। गुरु केवल शरीर नहीं है ? गुरु माने परंपरा, गुरु माने व्यास, गुरु माने जहाँ से ज्ञान आता हो, जहाँ से विचार आते हों, जहाँ से समाधान आता हो, जहाँ से चुनौतियों को जीतने के लिए बल मिलता हो, उस सत्ता को गुरुसत्ता कहते हैं। गुरु का आदर किसी व्यक्ति का आदर नहीं, अपितु गुरु की देह में जो विदेही आत्मा परब्रह्म परमात्मा बैठा है, उसका आदर है, उसका पूजन है। ज्ञान का आदर है, विद्या का पूजन है, परब्रह्म का पूजन है। गुरु और शिष्य का संबंध एक बंधन है, जिसमें बंध कर शिष्य जन्म-जन्मान्तर के बंधनों से मुक्त हो जाता है…! जिसमें गुरु दे दे कर भर जाता है और शिष्य मिट मिट कर बन जाता है। सीखता शिष्य है, लेकिन परीक्षा गुरु की होती है। अतः शिष्य से हारने पर भी जीत गुरु की ही होती है…।
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – सद्गुरु जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं का जो साक्षी आत्मा है उसी का बोध (ज्ञान) कराता है। गुरु हमें अवसाद से आनन्द तक, दु:ख से सुख तक, असत्य से सत्य तक, भ्रम से निवारण तक ले जाते हैं। जीवन में कोई समर्थ गुरु मिल जाए तो ही जीवन पूर्ण होता है। जो हमारे संशय की निवृत्ति कर दे वही गुरु है। जिसके पास हमारे सभी प्रश्नों के पहेलियों के उत्तर हैं, वह गुरु है। गुरु एक तत्व है जो श्रद्धा के अतिरेक से जागृत हो जाता है। जहां समर्पण है वहाँ शिष्यत्व है और जहाँ देने की भावना है वहां गुरुत्व है। इसलिए जैसे ही साधक के मन मे श्रद्धा अवतरित होती है वैसे ही गुरु का ज्ञान साधक के लिए उपलब्ध होने लगता है। श्रद्धावान लभते ज्ञानं। ज्ञानं लब्धम परम् शांति …। जैसे ही साधक के भीतर श्रद्धा जन्म लेती है। गुरु के ज्ञान वो अधिकारी बन जाता है। गुरु एक तत्व है वो कहीं भी विकसित होता है कहीं भी जागृत होता है। कहीं पर भी प्रकट हो सकता है। गुरु ग्रंथ से, गुरु पंथ से, गुरु व्यक्ति से संदेश, संकेत में हमारा कल्याण करता है। आज का यह पावन गुरुपूर्णिमा का अवसर ऐसा दिन है कि जब अपने आप को अर्पण करने का दिन, आपने भाव अपने विचार अपने आपको समर्पित करने का दिन है और गुरुओं को प्रणाम करने का दिन है। उनके श्रीचरणों मे शीश नवाएं, उनके अनुरूप जीवन जीएं, उनके उपदेश पर चलें, उनके सिद्धान्तों के मूल को जीवन मे अपनाएं ओर अपने जीवन को सार्थक एवं दिव्य बनाएं …।

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