धर्म का अर्थ होता है – धारण, अर्थात् जिसे धारण किया जा सके : स्वामी अवधेशानन्दं जी महाराज

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
            ।। श्री: कृपा ।।
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 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – धर्म जीवन सिद्धि के लिए परमात्मा द्वारा बनाई गई उच्चस्तरीय व्यवस्था का नाम है। महापुरुषों के अनुसरण-धर्मानुकूल आचरण में ही प्रकृति संरक्षण और जैव-जगत के संतुलन के सूत्र समाहित हैं। अतः इहलौकिक-पारलौकिक अनुकूलताओं के लिए धर्म का अनुपालन ही श्रेयस्कर है ..! धर्म का अर्थ होता है – धारण, अर्थात् जिसे धारण किया जा सके। धर्म, कर्म प्रधान है। गुणों को जो प्रदर्शित करे वह धर्म है। धर्म को गुण भी कह सकते हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि धर्म शब्द में गुण अर्थ केवल मानव से संबंधित नहीं, अपितु पदार्थ के लिए भी धर्म शब्द प्रयुक्त होता है यथा पानी का धर्म है बहना, अग्नि का धर्म है प्रकाश, उष्मा देना और संपर्क में आने वाली वस्तु को दग्ध करना। व्यापकता के दृष्टिकोण से धर्म को गुण कहना सजीव, निर्जीव दोनों के अर्थ में नितांत ही उपयुक्त है। धर्म सार्वभौमिक होता है।
वस्तु-पदार्थ हो या मानव पूरी पृथ्वी के किसी भी कोने में बैठे मानव या पदार्थ का धर्म एक ही होता है। उसके देश, रंग-रूप की कोई बाधा नहीं है। धर्म सार्वकालिक होता है यानी कि प्रत्येक काल में, हर युग में धर्म का स्वरूप वही रहता है। धर्म कभी बदलता नहीं है। उदाहरण के लिए पानी, अग्नि आदि पदार्थ का धर्म सृष्टि निर्माण से आज पर्यन्त समान है। धर्म और सम्प्रदाय में मूलभूत अंतर है। धर्म का अर्थ जब गुण और जीवन में धारण करने योग्य होता है तो वह प्रत्येक मानव के लिए समान होना चाहिए। जब पदार्थ का धर्म सार्वभौमिक है तो मानव जाति के लिए भी तो इसकी सार्वभौमिकता होनी चाहिए। अतः मानव के सन्दर्भ में धर्म की बात करें तो धर्म का मुख्य अंग है – नैतिकता और मानवता …।
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 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – भारतीय संस्कृति का मूल “धर्म” ही है। पंचतंत्र के अनुसार यह धर्म ही है जो व्यक्ति को अन्य जीवों से अलग करता है वहीं वैशेषिक सूत्र के अनुसार जिससे सांसारिक सुख व आध्यात्मिक कल्याण प्राप्त हो वही धर्म है। वहीं महाभारत में धर्म को अर्थ व काम का स्रोत माना गया है। गीता व पुराण में भी धर्म के महत्व को प्रधानता दी गयी है जिनमें कहा गया है कि धर्म का पालन करने से मनुष्य पाप से बचा रहता है। धर्म मात्र बौद्धिक उपलब्धि ही नहीं है, वह मनुष्य की स्वाभाविक आत्मा है, परंतु वह शरीर और कर्म के आवरण से ढँकी हुई है, इसीलिए वह अज्ञात है। आवरण से चैतन्य ढँका हुआ है, पर उसका अस्तित्व विस्मृत नहीं है। सूर्य बादल से ढँका हुआ है, पर वह अस्त नहीं है। मनुष्य प्रत्येक प्रवृत्ति के उपरांत विराम चाहता है। शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति मनुष्य को वाह्य जगत में ले जाती है। वाणी मौन होना चाहती है और शरीर शिथिल। शरीर की शिथिलता, वाणी का मौन और मन का अंतर में विलीन होना ध्यान है और यही आत्मा का स्वाभाविक रूप है, यही धर्म है।
धर्म का अर्थ है – आत्मा से आत्मा को देखना, आत्मा से आत्मा को जानना और आत्मा से आत्मा में स्थित होना। जो आत्मा का स्वभाव नहीं है, वह धर्म नहीं है। धार्मिकता अंत:करण की पवित्रता है। वह धर्म की रुचि होने मात्र से प्राप्त नहीं होती है, बल्कि उसकी साधना से प्राप्त होती है। अधिकतर धार्मिक सिद्धि प्राप्त करने वाले लोग हैं। आज का धर्म भोग से इतना आच्छन्न है कि त्याग और भोग के मध्य कोई रेखा नहीं जान पड़ती। धर्म का क्रांतिकारी रूप तब होता है जब वह जनमानस स्वयं को भोग से त्याग की ओर अग्रसर करे। धर्म से आत्मोदय होता है, यह उसका वैयक्तिक स्वरूप है। इस प्रकार उसका प्रभावशाली होना सामाजिक स्वरूप है। यही दोनों रूप आज अपेक्षित है। इसलिए यह शाश्वत व परिवर्तन की मर्यादा को समझने से ही प्राप्त हो सकते हैं …।

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