पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – मानस शुभता-शुचिता, अभिव्यक्ति का पावित्रय-लालित्य; कर्म में परहित-परमार्थ भावना जीवन सिद्धि की स्वाभाविक माँग है; अतः मन, वचन, कर्म का संयम रहे..! अनंत सामर्थ्य, शुभता, अतःकरण की पवित्रता, मन- वचन-कर्म में एकता, भाव-शुचिता, सत-कर्मप्रीति और समर्पण ही साधना का सार है। विचारों की पवित्रता जीवन में मीठी सुगंध भरती है। जो भाव हम में पवित्रता भरे, शुचिता भरे, उल्लास और आवाहन भरे, ऊर्जा और आनंद भरे, प्रेम और करुणा भरे वही अध्यात्म है। संसार में रहते हुए जीवन संघर्षो में सहज और सम बने रहने की कला ही अध्यात्म है। सुख-दुःख से परे निरंतर आनंद, प्रसन्नता, अपने अस्तित्व की स्वीकार्यता और स्वभाव में रहना यही तो अध्यात्म है। परहित के लिए किया गया कार्य परमार्थ का कार्य होता है। धर्म वही जो परमार्थ की ओर ले जाय। परोपकार के सदृश इस संसार में कोई दूसरा धर्म नहीं है। अपने अस्तित्व को संसार हित में बलिदान कर देने से जिस महान धर्मफल की प्राप्ति होती है, उसकी तुलना अन्य धार्मिक कर्मकांडों से नहीं की जा सकती। परमात्मा की कृपा और माता-पिता का उपकार ही साकार होकर हम सबको शरीर रूप में मिला है। इस बात को इस प्रकार भी कह सकते हैं कि मानव-जीवन की आधारशीला उपकार ही है। इसलिये हमारा यह जीवन परोपकार में ही लगना चाहिये। इसी में इसकी सार्थकता है और इसी में कल्याण भी निहित है…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी कहा करते हैं कि संत-सत्पुरुषों की पहचान का सबसे बड़ा लक्षण है – परमार्थ। जो परमार्थ में लीन है, तन, मन, धन से परोपकार और परहित में निरत है, वही सज्जन है, वही सत्पुरुष है, और वही साधु है। परोपकार केवल मानवीय गुण ही नहीं वह आध्यात्मिक सद्गुण भी है। इसकी आराधना करने से लोक और परलोक दोनों संवरते हैं। इसी गुण पर जहाँ आत्मा का उत्थान निर्भर है, वहीं संसार और समाज का सृजन, व्यवस्था और विकास की धुरी भी इसी पर निर्भर रहती है। आज यदि समाज के सारे लोग केवल स्वार्थी बन जाएं और दूसरों के हित का सम्पादन न करें तो कल ही समाज में घोर अनर्थ घटित होने लगेंगे। अराजकता, संघर्ष और छीना-झपटी का बोल-बाला हो जायेगा। अतः परहित और परोपकार के बिना संसार का क्रम एक क्षण भी नहीं चल सकता। अस्तु, आत्मा और समाज के कल्याण के लिये यथासाध्य परोपकार के कार्य करते रहना चाहिये…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – परोपकार एवं परमार्थ से विमुख रहना समाज के साथ विश्वासघात करने के बराबर है। हम आज जो कुछ हैं या हमारे पास जो कुछ भी धन-संपत्ति, पद-प्रतिष्ठा और अवसर, संयोग है; वह सब समाज द्वारा हमारे ऊपर उपकार किये जाने का ही फल है। यदि समाज ने हमारी उपेक्षा की होती, हमारे हित से सर्वथा मुख मोड़ लिया होता तो किंचित हमारा अस्तित्व ही आपत्ति ग्रस्त हो जाता। थोड़ी दूर भी चल सकना कठिन हो जाता। इस प्रकार समाज के प्रत्युपकार के लिए कुछ न करना कृतघ्नता ही होगी, उसकी अपेक्षाओं के प्रति विश्वासघात होगा। जो कि न तो लौकिक दृष्टिकोण से शुभ है और न ही पारलौकिक दृष्टि से कल्याणकारी। लोक और परलोक शरीर और आत्मा, सारे माननीय अनुबन्धों के मंगल के लिए परोपकार एवं परमार्थ में निरत रहना परमावश्यक है। इससे विमुख होना अपना वर्तमान और भविष्य दोनों को बिगाड़ लेना है। इसी तथ्य और अपने अनुभव के आधार पर ही तो महर्षि व्यास ने कहा है – “जीवितं सफलं तस्य, यः परार्थोद्यतः सदा …” अर्थात्, जीवन उसी का सफल एवं सार्थक है, जो सदा परोपकार में प्रवृत्त रहता है, निश्चय ही, परोपकारी को न पाप का भय रहता है और न पतन का। वह तो लोक अथवा परलोक सब जगह श्रेय का ही अधिकारी बनता है….।
पूज्य “आचार्यश्री” जी कहा करते हैं कि परोपकार के सदृश इस संसार में दूसरा कोई धर्म नहीं है। जीवन-प्रवाह तो ऊँचे-नीचे मार्गों के बीच से होकर बहता है। अतः इस शरीर, इस जीवन को परोपकार में समर्पित कर देना साधना का, धर्म का सबसे बड़ा निरापद मार्ग है। परोपकार का पुण्य मनुष्य को सभ्य-सुसंस्कृत, उच्चविचार और भावना वाला बना देता है। परोपकार से मनुष्य का मन निर्मल और विकार रहित बनता है। उसके जीवन में सतोगुण की वृद्धि और आत्मा में आध्यात्मिक आलोक का समावेश होता है। परोपकार की भावना जितनी उच्च-विशाल और निष्काम होती जाती है, मनुष्य उतना ही परमात्मा के सान्निध्य की ओर बढ़ता जाता है। अतः इसका अनुभव तो वही त्यागी पुरुष कर सकता है, जो परोपकार के यज्ञ में अपने सर्वस्व को समिधा मान कर समर्पित कर देता है…।
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