पूज्य सद्गुरुदेव अवधेशानंद जी महाराज आशिषवचनम्

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
            ।। श्री: कृपा ।।
???? पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – मनसा, वचन, कर्म की एकता-पवित्रता, सत्संग, सन्त-सन्निधि और समर्पण ही सर्वोत्तम साधन है…! मन, वचन और कर्म की एकता का नाम सत्य है। सत्य परमेश्वर का रूप है। सत्य ही अमोघ साधन है। सत्य का संग करना एवं अपने जीवन में सत्यनिष्ठा को धारण करना ही साधक का लक्ष्य होना चाहिए। सत्संग से प्राप्त अधिक सात्त्विकता साधना में सहायक होती है। हमेशा बड़े लक्ष्य बनाएं, आप उतने ही बड़े हैं जितने बड़े आपके विचार व लक्ष्य। विचारों को हमेशा व्यापक व बड़ा रखें। सोच सीमित न होने दें। धन नहीं मन की उदारता से बड़े बनें। मनुष्य होने का अर्थ है – अनंतता को प्राप्त करना। और, अनंतता एकाग्रता से प्राप्त होती है। एकाग्रता बड़ी साधना है, बड़े लक्ष्य को भेदने के लिए। एकाग्रता के लिए स्वयं को जानना जरूरी है। स्वयं को आप जितना जानेंगे उतने ही आनंदमय हो जाएंगे। आपका चित्त, मति, गुण, धर्म, प्रकृति, चौकन्नापन एवं विवेक सब एक जगह होना ही एकाग्रता है। इसके बिना मनुष्य की चेतना बिखरी रहती है। सच्चा भक्त परमात्मा से सदैव संयम, विवेक, सद्-कर्म और शुभ संकल्प की शक्ति पाने की प्रार्थना करता है। मन को चट्टान की तरह बनाओ ताकि वह भटके नहीं, मन के अधीन रहने की कारण ही हम मनुष्य कहलाते है और मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण बनता है, इसलिए मोक्ष प्राप्ति के लिए मन पर विजय पाना अति आवश्यक है। मनुष्य के भीतर यदि प्रेम, करूणा, दया, उदारता आदि गुण नहीं है तो यह एक प्रकार से विकलांगता है। और, यह विकलांगता सत्संग से ही दूर हो सकती है। मनुष्य जीवन को सत्संग से आकार दिया जा सकता है। संयम का हथौड़ा और विवेक की छैनी द्वारा आप अपने भविष्य को आकार दे सकते हैं, दिव्य बना सकते हैं…।
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी ने के कहा – जिनका मन निर्मल होता है, अर्थात मन, वाणी और कर्म से जो एक होते हैं, जो भीतर और बाहर से एक हैं, वे ही भगवत्ता को प्राप्त करते हैं। मन-वचन-कर्म में एकता, भाव-शुचिता, सत-कर्म प्रीति और पूर्ण समर्पण ही साधना का सार है। विशुद्ध ब्रह्मलोक उन्हें ही प्राप्त होता है जिनके अन्तःकरण में असत्य, छल, कपट और कुटिलता नहीं है। सत्य का चिन्ह “मन कर्म और वचन की एकता है। ”वां मनर्स्कमणाँ यथार्थं सत्यम्…। जो बात मन से हो वही वचन से भी प्रकट की जाए और जो वचन कहा जाए वही कार्य रूप में भी हो; तो इस प्रकार की त्रिविध एकता ही सत्य का लक्षण है। सत्य को वाणी का तप कहा गया है। जो लोग मन, वाणी और कर्म की अभेदता साध लेते हैं, उन्हें सत्य का साक्षात्कार अवश्य होता है। साधना में निराभिमानिता होना चाहिए। आहार व विचार की शुद्धता, चिंतन की पारदर्शिता भगवद प्राप्ति के सरल उपाय हैं। “पूज्य आचार्यश्री” जी कहा करते हैं कि स्वभाव जितना सरल, कुंठामुक्त, पूर्वाग्रह से रहित, शांत तथा सत्याचरण से युक्त होगा, मनुष्य उतना ही सहृदय होगा। समर्पण सर्वोत्तम साधन है। इस प्रकार मन-वचन-कर्म से समर्पित साधक अभयता और आनंद का अधिकारी बन जाता है…।
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – समर्पण से मिलती है – पूर्णता। समर्पण ठीक वैसे ही है जैसे एक कन्या विवाह के बाद अपने पति के प्रति समर्पित हो जाती है। माता-पिता का मोह छोड़कर वह अपना सब कुछ पति को ही मानती है। पति पर उसका पूर्ण विश्वास होता है। पति पर पूर्ण विश्वास ही उसके लिए जीवन का एक अर्थ है। समर्पण क्यों करना चाहिए? क्योंकि, जब तक समर्पण नहीं होता, तब तक सच्चा सुख नहीं मिलता। सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए समर्पण किया जाता है। समर्पण यदि कपटपूर्ण है तो सुख भी दिखावा मात्र ही होगा। समर्पण से ही परमात्मा सहाय बनते हैं। मीरा ने समर्पण यह कहकर किया कि ‘मेरो तो गिरधर गोपाल बस दूसरो न कोय …’ तो, मीरा को पिलाया जाने वाला जहर परमात्मा ने अमृत में बदल दिया। द्रौपदी ने थक हार कर जब अंत में केवल और केवल श्रीकृष्ण को समर्पण किया तो भगवान श्रीकृष्ण ने उनका चीरहरण नहीं होने दिया और द्रौपदी की लाज की रक्षा की। द्रौपदी का कुछ काम नहीं आया। काम आया केवल भगवान के प्रति समर्पण। राजा जनक ने अष्टावक्र ऋषि के प्रति समर्पण किया तो राजा जनक को तत्क्षण ज्ञान हो गया। रामकृष्ण परमहंस के प्रति बालक नरेंद्र का, जो कि बाद में स्वामी विवेकानंद के नाम से जाने गए, समर्पण हुआ तो काली मां उनके हृदय में प्रकट हो गई। महात्मा बुद्ध को कोई भी शास्त्र बुद्ध न बना पाया। अंत में बालक सिद्धार्थ परम सत्ता के प्रति एक वट वृक्ष के नीचे बैठे पूर्णरूपेण समर्पित हुए तो वे तत्क्षण बुद्ध हो गए और यही बालक सिद्धार्थ कालांतर में महात्मा बुद्ध कहलाए…।

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