पूज्य सद्गुरुदेव अवधेशानंद जी महाराज आशिषवचनम्

     पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – सकारात्मकता, शुभ-संकल्प, सत्संग, सन्त-सन्निधि, सत्य-अन्वेषण की तत्परता और सकल रूपान्तरण के निमित्त सहज साधन हैं…! संकल्प की पवित्रता से सकारात्मकता आती है। सकाराकता अपने आपमें सफलता, संतोष और संयम लेकर आती है। सकारात्मकता का मतलब है – आप बहुत आशावादी हैं। आशावादिता का अर्थ यह है कि आप में निराशा नहीं है। सकारात्मकता तीन चीजें साथ लेकर चलती हैं। पहली – नव सृजन यानी नूतनता या अभिनवता। आपको हर चीज नई करनी है। दूसरी चीज है – पुरातन। इससे आपको सीखना है। पुरातन यानी भूतकाल आपका शिक्षक बने और भविष्य के प्रति आप आशावादिता रखें। अब तीसरी चीज है – वर्तमान। वर्तमान में यदि कहीं कठिनाई, दुविधा है या कोई चुनौती अनुभव कर रहे हैं तो इसका अर्थ है कि वो चुनौती आपकी सक्षमता को जगाने के लिए है। आप और अधिक योग्य बनें, पोटेंशियल बनें अथवा अपने सामर्थ्य को जगाएं। जिनमें हम देखते हैं कि सकारात्मकता खो गई है तो इसका अर्थ यह हुआ कि वे वर्तमान की प्रति सजग नहीं हैं और भविष्य के प्रति आशावादी नहीं हैं। आशावादिता एक चीज साथ लेकर चलती है जिसका नाम है – आत्मविश्वास। सकारात्मक व्यक्ति वही है जो आत्मविश्वास रखता है। और, आत्मविश्वासी व्यक्ति ही सफलता की ओर बढ़ता है। आत्मविश्वास सफलता की कुंजी है। सफलता वहां है जहां स्वयं के प्रति विश्वास है। और, इसका मूल है सकारात्मकता..।
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – शुभ-संकल्प के उदय होने का अर्थ है – भागवत-सामर्थ्य, अंतस में समाहित आध्यात्मिकता, दिव्यता और सकारात्मकता का जागरण। जीवन में शुभ-संकल्प होना हमारे कल्याण का हेतु है। शुभ-संकल्प का आशय अच्छे विचारों से है। आडंबरों और उपाधियों की भरमार न केवल दुखदायी होती है, अपितु शांति को भी भंग करती है। अत: प्रयास यह होना चाहिए कि सहज भाव से जीया जाए। सरलता और सहजता नैसर्गिक गुण हैं। निश्छल मन में ही सद्विचार आते हैं, जो हमारे बंधनों को काटने वाले होते हैं। जो सहज, शांत और विपरीत परिस्थितियों में भी भीषण नहीं है वही विभीषण है। हमारी अज्ञानता, आलस्य हमें रोकता है। हमारे भीतर का ज्ञान श्रेष्ठता की सीढ़ी चढ़ता है। कुछ पल अत्यंत प्रेरक, प्रभावी और जीवन के लिए एक बड़ा इतिहास बन जाते हैं। यदि मन में कोई शुभ संकल्प आया हो उसे शीघ्र संपन्न कर लेना चाहिए, और अशुभ बात को सदा के लिए टाल देना चाहिए…।
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी कहा करते हैं कि सर्वप्रथम हम स्वयं में संतुलित हों। स्वयं को पहचानने की कोशिश करें। अपनी पावनता का बोध हमें न केवल प्रसन्नता प्रदान करता है, अपितु बल भी देता है। स्वयं का मूल्यांकन सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। जगत की आलोचना या परमूल्यांकन का उसके समक्ष कोई मूल्य नहीं है, किंतु यह स्वमूल्यांकन सर्वथा निरपेक्ष होना चाहिए। हम अपने को तभी सत्य मानें, जब सत्य का अनुसरण करते हों। जीवन को सत्य और सरल बनाने के लिए हम अनन्तकाल से प्रार्थना करते रहे हैं। कर्तव्य मार्ग पर दृढ़ रहने का भी हमारा संकल्प रहा है। अत: अभीष्ट यही है कि प्रार्थना को जीवन का अंग बनाकर सन्मार्ग का अनुसरण किया जाए। तो आइए, परमशक्तिमान परमेश्वर की सर्वातिशायी सत्ता का स्मरण करें, जिसके कि हम स्वयं भी अंश हैं। अंश और अंशी में भेद नहीं होने से हम भी परम शक्तिमान हैं। स्मरण के माध्यम से उस शक्ति का बोध करना ही हमारे कल्याण का हेतु है। “आचार्यश्री” जी ने कहा की वर्तमान में अपने विवेक को जागायें, भौतिकवादिता से बचें एवं जाग्रत महापुरुष की सन्निधि जीवन का सकल रूपांतरण करने में सक्षम है। अतः संत-समीपता सर्वथा हितकर है। संत-महापुरुषों की संगति प्राप्त करके ही मन निर्मल होता है साथ ही एक सहज अवस्था भी प्राप्त हो जाती है…।

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