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पूनम शर्मा
पश्चिम बंगाल की राजनीति एक बार फिर से उस चौराहे पर खड़ी है जहाँ ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘तुष्टिकरण’ की रेखाएँ धुंधली होती दिख रही हैं। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर आरोप है कि उन्होंने अल्पसंख्यक समुदाय, विशेषकर मुसलमानों के वोट बैंक को साधने के चक्कर में हिंदू समाज की उपेक्षा की है। यह कोई नया विवाद नहीं, लेकिन हाल के मामलों ने इसे और गंभीर बना दिया है।
शुभेंदु अधिकारी का बड़ा बयान
बीजेपी नेता और विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी ने ममता सरकार पर तीखा हमला बोलते हुए कहा कि बंगाल की स्थिति अब इतनी खराब हो चुकी है कि “यहाँ पुलिसकर्मी भी सुरक्षित नहीं हैं।” उनका आरोप है कि राज्य सरकार ने जानबूझकर ऐसी नीति अपनाई है जिसमें एक समुदाय को प्राथमिकता दी जा रही है, जबकि बहुसंख्यक हिंदुओं को हाशिए पर ढकेल दिया गया है।
त्योहारों पर प्रतिबंध, मुस्लिम आयोजनों को खुली छूट?
यह मामला तब और गरमा गया जब दुर्गा पूजा और रामनवमी जैसे हिंदू त्योहारों पर प्रशासनिक बंदिशें लगाई गईं, जबकि रमजान और मुहर्रम के आयोजनों को पूरी छूट दी गई। कई जगहों पर रामनवमी की शोभा यात्राओं को रोका गया, अनुमति देने में देर की गई या सीमित कर दिया गया। इसके ठीक बाद उसी इलाके में ईद के आयोजन बिना किसी प्रतिबंध के सम्पन्न हुए।
सरकारी योजनाओं में असंतुलन?
बीजेपी और अन्य विरोधी दलों का दावा है कि ममता सरकार की कई जनकल्याण योजनाओं का फायदा बहुसंख्यक हिंदुओं की तुलना में अल्पसंख्यक समुदाय को ज़्यादा मिला है। “काज़ी नजरूल यूनिवर्सिटी” और “हज हाउस” जैसी संरचनाएं सरकारी पैसे से बनाई गईं, जबकि हिंदू तीर्थ स्थलों और संस्कृत शिक्षा को अपेक्षित समर्थन नहीं मिला।
पुलिस प्रशासन की भूमिका पर भी सवाल
राज्य में कई बार हिंसक घटनाएँ हुईं, जिनमें आरोप लगा कि पुलिस ने मुस्लिम पक्ष के दबाव में आकर हिंदू समुदाय को ही दोषी ठहरा दिया। बीरभूम, हावड़ा, मुर्शिदाबाद और उत्तर 24 परगना जैसे जिलों में हिंसा के दौरान देखा गया कि हिंदू व्यापारियों और घरों को निशाना बनाया गया, लेकिन कार्रवाई के नाम पर निष्क्रियता ही दिखाई दी।
हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के भी सवाल
बंगाल की स्थिति पर सिर्फ राजनीतिक पार्टियों ने नहीं, बल्कि न्यायपालिका ने भी चिंता जताई है। कलकत्ता हाईकोर्ट ने कई बार राज्य सरकार से पूछा है कि क्या वह तुष्टिकरण के कारण कानून व्यवस्था के साथ समझौता कर रही है? सुप्रीम कोर्ट ने भी चुनावों के दौरान हुई हिंसा और पक्षपातपूर्ण प्रशासनिक कार्रवाई को लेकर नाराज़गी जताई थी।
ममता की सफाई—’सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखना जरूरी’
हालाँकि ममता बनर्जी हर बार इन आरोपों को सिरे से खारिज करती रही हैं। उनका तर्क है कि बंगाल की संस्कृति में सबको साथ लेकर चलना शामिल है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या यह “सबका साथ” केवल भाषणों में रह गया है? ज़मीनी हकीकत तो यही बताती है कि बहुसंख्यक समाज के बीच नाराज़गी लगातार बढ़ रही है।
चुनावी रणनीति या सांप्रदायिक संतुलन?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि ममता की मुस्लिम तुष्टिकरण की रणनीति केवल वोटबैंक साधने का तरीका है। बंगाल की 30% आबादी मुस्लिम है, और तृणमूल कांग्रेस इसे अपने स्थायी वोट बैंक की तरह देखती है। इसके चलते हिंदुओं की भावनाओं की उपेक्षा हो रही है, और यही बीजेपी जैसे दलों को राज्य में पाँव जमाने का अवसर दे रहा है।
क्या बदल रहा है बंगाल?
बंगाल में ममता बनर्जी की सत्ता भले मजबूत दिखे, लेकिन सामाजिक स्तर पर हिंदुओं के भीतर गहरी बेचैनी है। अगर यह असंतोष राजनीतिक आंदोलन में बदलता है, तो राज्य की राजनीति की दिशा पूरी तरह बदल सकती है। ममता बनर्जी को अगर वाकई ‘माँ-माटी-मानुष’ की राजनीति करनी है, तो उन्हें सभी समुदायों के साथ न्याय करना होगा—न कि किसी एक समुदाय के प्रति विशेष झुकाव दिखाना ।
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