कृपया इस पोस्ट को साझा करें!
समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,5 मई । भारत की जनता को यह पता चलकर आश्चर्य हो सकता है कि फिलिस्तीन को मान्यता देने वाला पहला देश न सऊदी अरब था, न पाकिस्तान, न अफगानिस्तान, न इराक और न तुर्की—किंतु भारत था। और यह कोई साधारण राजनीतिक निर्णय नहीं था, किंतु इंदिरा गांधी के नेतृत्व में लिया गया एक ऐसा फैसला था, जिसने भारत की विदेश नीति को मुस्लिम तुष्टिकरण की दिशा में मोड़ दिया।
इंदिरा गांधी ने न केवल फिलिस्तीन को मान्यता प्रदान की, बल्कि उसके नेता यासिर अराफात को “नेहरू शांति पुरस्कार” से सम्मानित किया, जिसे आतंकवाद और उग्रवाद से जुड़े एक कुख्यात नाम के लिए दिया गया सम्मान कहा जाए, तो गलत न होगा। राजीव गांधी ने इस पर एक कदम आगे बढ़ाते हुए अराफात को “इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय शांति पुरस्कार” से सम्मानित किया और यहां तक कि उन्हें दुनिया भर में उड़ान भरने के लिए बोइंग विमान उपहार में दे दिया।
यासिर अराफात फिलिस्तीनी नेता ही नहीं थे, वे ओआईसी (Organisation of Islamic Cooperation) जैसे संगठनों के मंच से कश्मीर को “पाकिस्तान का अभिन्न अंग” कहने वाले व्यक्ति भी थे। उन्होंने सार्वजनिक रूप से यह घोषणा की थी कि उनके “बच्चे कश्मीर की आज़ादी के लिए पाकिस्तान के साथ मिलकर लड़ेंगे।” सोचिए, जिसे भारत सरकार ने करोड़ों रुपये का नकद पुरस्कार और सोने की ढाल भेंट की, वही भारत के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बोल रहा था।
इंदिरा गांधी द्वारा अराफात को दिए गए नेहरू शांति पुरस्कार में एक करोड़ रुपये नकद और 200 ग्राम की सोने की ढाल शामिल थी। 1988 में एक करोड़ रुपये की कीमत आज के हिसाब से करीब डेढ़ अरब रुपये से अधिक बैठती है। सवाल उठता है — क्या यह भारतीय करदाताओं के पैसे का ऐसा इस्तेमाल था, जिस पर गर्व किया जा सके?
कांग्रेस की विदेश नीति को लंबे समय तक नैतिकता और आदर्शवाद के चश्मे से देखा गया, लेकिन अगर गौर से देखें, तो कई फैसले दरअसल मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति से प्रेरित थे। फिलिस्तीन को सबसे पहले मान्यता देकर, कांग्रेस ने न सिर्फ अरब देशों में अपनी साख बनाने की कोशिश की, बल्कि यह संदेश भी दिया कि भारत मुस्लिम दुनिया के साथ खड़ा है, भले ही उस नेतृत्व के हाथ आतंकवाद से सने क्यों न हों।
अराफात जैसे नेता को विमान भेंट करना और नकद पुरस्कार देना उस समय भले ही कूटनीतिक जीत माना गया हो, लेकिन इसका असर भारत की सुरक्षा नीति पर पड़ा। OIC जैसे मंचों पर पाकिस्तान को खुला समर्थन मिला, और कश्मीर को लेकर अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ा।
आज जब कांग्रेस पार्टी नरेंद्र मोदी सरकार को “विदेश नीति का पाठ” पढ़ाने का प्रयास करती है, तो यह उसकी ऐतिहासिक भूलों की अनदेखी का ही प्रमाण है। मोदी सरकार की विदेश नीति जहां भारत के सामरिक हितों और राष्ट्रीय सुरक्षा पर केंद्रित है, वहीं कांग्रेस का इतिहास ऐसे फैसलों से भरा हुआ है जो राष्ट्रहित के बजाय वोट बैंक और तुष्टिकरण पर आधारित रहे हैं।
मोदी सरकार ने इज़राइल के साथ रिश्तों को नया मुकाम दिया, सुरक्षा और कृषि में सहयोग बढ़ाया और संयुक्त राष्ट्र में आतंकवाद के मुद्दे पर मजबूती से आवाज उठाई। वहीं कांग्रेस के समय में ऐसे नेताओं को सम्मानित किया गया, जो भारत के टुकड़े करने की बात करते थे। क्या यह विदेश नीति की समझदारी थी या आत्मघाती भूल?
यह जरूरी है कि हम अपने अतीत से सीखें और ऐसे फैसलों का विश्लेषण करें, जिन्होंने हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डाला। यह तय करना जनता का काम है कि कौन देशभक्त है और कौन नहीं, लेकिन यह तभी संभव है जब लोग तथ्यों को जानें और उनके पीछे की राजनीति को समझें।
“जागो, जागो, नहीं तो भविष्य में न यह देश बचेगा, न हमारा धर्म…!” — यह एक नारा नहीं, एक चेतावनी है। आने वाली पीढ़ियों की सुरक्षा, अखंडता और स्वाभिमान तभी बच पाएंगे, जब हम अतीत की गलतियों को पहचानेंगे और उनसे सबक लेंगे।
कृपया इस पोस्ट को साझा करें!
Comments are closed.