पाकिस्तान चुनाव में कौन जीतेगा, गेंद फौज के पाले में, पहली पसंद बने इमरान

इस्लामाबाद  । पाकिस्तान को 25 जुलाई को आम चुनाव हैं। नई सरकार के लिए जनता मतदान करेगी। पर क्या पाकिस्तान में वाकई चुनाव होने वाले हैं या सिर्फ ये चुनावी दिखावा भर है? ये सवाल बाहरी दुनिया से नहीं, बल्कि खुद पाकिस्तान के अंदर से ही उठ रहे हैं। दरअसल, सबसे ताज़ा खबर आ रही है कि इस बार पाकिस्तान में चुनाव नहीं सिर्फ चयन होने वाला है।

पाकिस्तान के नए वज़ीरे आज़म यानी प्रधानमंत्री का चयन और ये चयन चुनाव के जरिए पाकिस्तानी अवाम नहीं, बल्कि पाकिस्तानी फौज करने जा रही है। अब तक का इतिहास बताता है कि दिल्ली से 688 किलोमीटर दूर इस्लामाबाद की गद्दी पर कौन बैठेगा। ये वहां की फौज ही तय करती है।

या तो वो अपने किसी नुमाइंदे को मुल्क का वज़ीरे आज़म बनाती है या खुद ही उस पर काबिज़ हो जाती है। तो साल-2018 का आम चुनाव इससे अछूता कैसे रह जाता। अब तक अपने पत्तों को छुपाए बैठी पाकिस्तानी फौज ने धीरे धीरे अपना रुख साफ करना शुरू कर दिया है।

पाकिस्तान की सियासत में अचानक उथल-पुथल तेज़ हो गई है। हर तरफ से दबी ज़बान में ये आवाज़ उठ रही है कि इस बार भी पाकिस्तान में चुनाव नहीं चुनाव होने वाला है। तो सवाल ये कि आखिर ये चयन किसका है। खबर है कि अब तक पाकिस्तानी सेना का हुक्म बजा लाने वाले नवाज़ शरीफ से सेना नाराज़ है। क्योंकि उनका सबसे बड़ा गुनाह ये है कि उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कबूल किया कि भारत पर हुए दो बड़े आतंकी हमले पाकिस्तान की धरती से कराए गए। जबकि दूसरा गुनाह मुल्क में जम्हूरियत पर हो रहे हमलों की उन्होंने मुखालफत की।

ज़ाहिर है पाकिस्तान में सेना की नाराज़गी मतलब या तो देश निकाला होता है या जेल। नवाज़ शरीफ ने हिम्मत दिखाई और उन्होंने अपने मुस्तकबिल को सेना से अलग करते हुए जेल चुना। तो नवाज़ नहीं तो फिर कौन। सूत्रों के हवाले से खबर है कि सेना ने पाकिस्तान का मुस्तकबिल तय कर दिया है। और 26 जुलाई को वहां चुनाव नहीं बल्कि सिर्फ चयन होगा। वो भी पाकिस्तानी सेना की नई कठपुतली इमरान खान का।

जानकार मान रहे हैं कि पाक सेना चुनाव का रुख़ मोड़ने पर लगी हुई है। तो चरमपंथी भी खुल कर खेल रहे हैं। सिर्फ़ एक हफ़्ते में तीन बड़ी घटनाएं 168 जानें ले चुकी हैं। इतनी उथल-पुथल और जोड़-तोड़ के माहौल में जो भी 26 जुलाई के बाद सरकार बनाएगा, वो कितनी देर चल पाएगी और देश को आर्थिक, राजनीतिक और कूटनीतिक दिवालियापन के दलदल से कैसे निकाल पाएगी। फ़िलहाल इसकी परवाह किसी को नहीं है।

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