ज्ञानार्जन श्रेष्ठतम पुरुषार्थ है :स्वामी अवधेशानन्दं जी महाराज

पूज्य सद्गुरुदेव आशीषवचनम्
          ।। श्री: कृपा ।।
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 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – ज्ञानार्जन श्रेष्ठतम पुरुषार्थ है। इसके विपरीत अज्ञानता समस्त दुःखों की मूल जननी है। लोकोपकारी प्रवृत्तियों का सृजन; अध्यात्म सम्पदा का रक्षण विद्या तत्व द्वारा ही सम्भव है। अतः अध्ययन-अध्यापन, अभ्यास और व्यवहार द्वारा विद्या तत्व को संरक्षित और चैतन्य रखें ..! अध्ययन से मनुष्य का चारित्रिक विकास होता है। अपनी भौतिक शिक्षा के अतिरिक्त वह उन नैतिक मूल्यों को भी ग्रहण करता है जो उसमें आत्मबल व आत्मसंयम प्रदान करते हैं। अध्ययन अर्थात् पुस्तकों में रुचि रखने वाला व्यक्ति स्वयं को कभी भी एकाकी अनुभव नहीं करता है। कठिन परिस्थितियों में परीक्षा की घड़ी में पुस्तकें ही उसका परम विश्वसनीय मित्र होती हैं। उसकी सभी समस्याओं का हल उसे उन पुस्तकों के अध्ययन से प्राप्त हो जाता है।
अध्ययन से प्राप्त आनन्द असीमित है। इस तरह विज्ञान व तकनीकी से संबंधित पुस्तकों का अध्ययन कर वह खगोलीय व धरातल के रहस्यों को उजागर करता है। रहस्यों की जितनी परत खुलती जाती है, मनुष्य उतना ही अधिक हर्षोल्लास व रोमांच का अनुभव करता है। इसी प्रकार साहित्य से संबंधित पुस्तकों के माध्यम से वह मानवीय संवेदनाओं को लिखकर व उनका अध्ययन कर उन्हें प्रकट कर सकता है। अध्ययन की अभिरुचि से ही मनुष्य कालिदास, मिल्टन व शेक्सपियर जैसे महान लेखकों के महान लेखों का आनन्द उठा सकता है। अध्ययन में रस प्राप्त करने वाला व्यक्ति देश-विदेश में होने वाली घटनाओं की जानकारी रखता है। अतः ऐसे व्यक्ति शोषण के शिकार नहीं हो सकते अर्थात्, अध्ययन उनकी उन आपदाओं से रक्षा करता है …।
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 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – शास्त्र कहते हैं कि हम उन ज्ञानी पुरुषों का संग करें जो मानव समाज की जानकारी रखते हैं, जो जीवन-निर्माण के सिद्धांतों को समझते हैं। विद्वान आत्मविद्या और ब्रह्मविद्या को भली-भांति जानने वाले होते हैं। ऐसे लोगों की संगति करने से मनुष्य अपने ज्ञान में वृद्धि कर सकता है। शिक्षा द्वारा उपार्जित ज्ञान ही विद्या है। विद्या और ज्ञान एक अर्थ के दो पर्याय हैं। पूज्य “आचार्यश्री” जी का मानना है कि जिससे पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का बोध हो वह विद्या है और जिससे वास्तविक स्वरूप न जान पड़े वह अविद्या कहलाती है। विद्या का धन सब धनों से प्रधान और श्रेष्ठ है। विद्या का प्रथम लक्षण है – विनम्रता। विनम्रता से योग्यता प्राप्त होती है, योग्यता से धन की प्राप्ति होती है, धन से धर्म होता है और धर्म से सुख मिलता है। जिस विद्या से अभिमान की उत्पत्ति होती है वह उचित नहीं है। विद्या से बुद्धि के निर्मल होने पर ही मिथ्या ज्ञान अर्थात् अविद्या के फन्दों से बचा जा सकता है।
शिक्षा हमें आगे ले जाती है, विषयासक्ति से बचाने में सहायक होती है, कर्म कुशल बनाती है और उन्नत होने में सहायक होती है। विद्या वही उत्तम है जो आवागमन के चक्र से छुड़ाकर मुक्ति की प्राप्ति कराए। शास्त्रकारों ने विद्या की परिभाषा दी थी – ‘सा विद्या या विमुक्तये …’, यानी, विद्या वही है जो दु:खों से छुड़ा दे। जो और दु:खों को लाद दे, वह विद्या नहीं अविद्या है। विद्याहीन बड़े कुल से होने का मनुष्य को क्या लाभ है?  विद्या का महत्व सर्वोपरि है। अकेली विद्या ही परम संतोष दे सकती है। विद्या पढ़ा हुआ विद्वान ही प्रशंसित होता है, विद्वान ही सर्वत्र आदर पाता है। विद्या से धन-धान्य, मान-प्रतिष्ठा आदि सब कुछ मिलता है। ज्ञान शक्ति है। ज्ञान से मनुष्य उन्नत होता है। ज्ञान से मनुष्य मोक्ष को प्राप्त करता है। अतः ज्ञान वह पंख है जिसके द्वारा हम आकाश की ओर उड़ते हैं …।
🌿 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मनु द्वारा वर्णित धर्म के दस लक्षणों में विद्या और बुद्धि दोनों का एक साथ वर्णन है। जो बात हम अपनी बुद्धि से नहीं जान पाते, उसका ज्ञान देने के लिए विद्या होती है। विद्या हमारी बुद्धि को सुसंस्कृत करती है।विद्या ईश्वर का ज्ञान है। कई बार विद्वानों या शिक्षितों के विचारों में कोई त्रुटि या हृदय की संकीर्णता आ जाए तो लाभ कम और हानि अधिक पहुंच सकती है। एक संकीर्ण हृदय विद्वान, संकीर्ण हृदय अविद्वान की अपेक्षा अधिक हानिकारक हो सकता है। यदि विद्वान उदार व विशाल हृदय न हों तो समाज और राष्ट्र की अपार क्षति होती है। जब हृदय संकीर्ण हो जाता है तो वह अपवित्र माना जाता है। इस प्रकार जहाँ उदारता हृदय का गुण है, वहीं संकीर्णता हृदय का रोग है। इसलिये कहा गया है – “उदारचरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम् …”।

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