पूज्य सद्गुरुदेव अवधेशानंद जी महाराज आशिषवचनम्

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
            ।। श्री: कृपा ।।
????   पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – विचार, वैराग्य और ज्ञान का अभाव ही अनेक दुःख-द्वन्द पैदा करता है; अतः स्वाध्याय, सत्संग और संत-सानिध्य सर्वथा कल्याणकारक और दुःखहर्ता है…! मानवी-जीवन को श्रेष्ठ और समुन्नत बनाने के लिये सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय करना और जीवन में उतारना अत्यन्त आवश्यक है। मनुष्य-जीवन का सच्चा मार्गदर्शक एवं आत्मा का भोजन है –
 स्वाध्याय। स्वाध्याय से जीवन को आदर्श बनाने की सत्प्रेरणा स्वतः मिलती है। स्वाध्याय हमारे चिंतन में सही विचारों का समावेश करके चरित्र-निर्माण करने में सहायक बनता है, साथ ही ईश्वर प्राप्ति की ओर अग्रसर भी कराता है। स्वाध्याय स्वर्ग का द्वार और मुक्ति का सोपान है। संसार में जितने भी महापुरुष, वैज्ञानिक, संत-महात्मा, ऋषि-महर्षि आदि हुए हैं, उन्होंने स्वाध्याय से ही प्रगति की है। स्वाध्याय का अर्थ – स्व का अध्ययन है। स्व का अध्ययन कराने में सबसे सहायक माध्यम हैं – सत्साहित्य एवं वेद-उपनिषद्, गीता, आर्ष-ग्रन्थ तथा महापुरुषों के जीवन-वृत्तान्तों का अध्ययन आदि …।
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी ने विचार-परिष्कार का अमोघ उपाय अध्ययन एवं सत्संग को ही बतलाया है। जब मनुष्य अध्ययन में निरंतर संलग्न रहता है, तब उसको अपने विचार द्वारा विद्वानों के विचारों के बीच से बार-बार गुजरना पड़ता है। सद्ग्रन्थों में लिखे विचार अविचल एवं स्थिर होते हैं। सत का संग अर्थात सत्संग। जहां ‘सत्’ का अर्थ है – परम सत्य अर्थात् ईश्‍वर; तथा संग का अर्थ है – साधकों अथवा संतों का सान्निध्य। संक्षेप में, सत्संग से तात्पर्य है –
 ईश्‍वर के अस्तित्त्व को अनुभव करने के लिए अनुकूल परिस्थिति। सत्संग से प्राप्त अधिक सात्त्विकता साधना में सहायक होती है। हमारे आस-पास के राजसी एवं तामसी घटकों के आध्यात्मिक प्रदूषण के कारण ईश्‍वर तथा साधना के विषय में विचार करना भी कठिन हो जाता है। हो सकता है कि हम पिछले सप्ताह जीवन में हुए उतार-चढाव से त्रस्त अवस्था में सत्संग में पहुंचें, किन्तु सत्संग में आंतरिक पुनरुज्जीवन होता है तथा सत्संग की समाप्ति तक हम नव चैतन्ययुक्त स्थिति में आ जाते हैं…।
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – संत के विचार से, ज्ञान से अथवा अध्ययन से आपको सुखानुभूति प्राप्त होगी। जिस तरह से उत्तरा के पुत्र के जन्म से जो सुख युधिष्ठिर को मिला। साधना की पहली सीढ़ी का पहला कदम तप है। संत के दर्शन का मतलब तप की प्रेरणा है, क्योंकि जब वे तप करते हैं तब उन्हें मालूम है कि कैसे किसको किस रूप में ढालना है? वे इस संसार को नियंत्रित करते हैं। जिस तरीके से ऊंट को नियंत्रित किया जाता है नकेल से, घोड़े को नियंत्रित किया जाता है लगाम से और हाथी को महावत नियंत्रित करता है अंकुश से। ठीक उसी तरह जब हमारा मन अति अभिमानी, अति असंयमशील, भ्रष्ट और भ्रम के ताने बाने में उलझ जाऐ, तब तप सबसे बड़ा शस्त्र है। पहला तप, आहार-विहार की शुचिता से मिलता है। जिस साधक के पास आहार-विहार की शुचिता नहीं, वह साधना नहीं कर सकता। साधु-संतों के पास आहार-विहार की बड़ी शुचिता होती है। उनका भोजन ग्रहण, मनन, चिंतन, कथन और श्रवण बड़ा संयत होता है। तभी तो दर्शन की चरम स्थिति पर पहुँचे ऋषि-मुनियों ने जगत के पदार्थों का विश्‍लेषण कर इन्हें परिवर्तनशील और क्षण भंगुर बताया हैं। उन्होनें समूची सत्ता को मिथ्या कहा है, जहाँ वेदों में भी इस बात का विवरण मिलता है। सत्य तो सिर्फ यही है – ब्रह्म सत्य… और, जगत मिथ्या। जब मानव मन स्वप्न के विकारों से अथवा दूषित सपनों से मुक्त हो जाता है तभी उसे मुक्ति मिलती है और यह मुक्ति आपको मिलेगी – एकांत शैली से। जिसमें जगा हुआ साधक एकांत के इस पल को ध्यान, जप, भजन एवं प्रभु स्मरण में लगाता है…।

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