पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सदगुरुदेव” जी ने कहा – सनातन-वैदिक संस्कृति स्वाभाविक एवं नैसर्गिक जीवन धारा है; जहाँ आत्मोन्नयन और लोकोपकार के साथ-साथ समरसता समन्वय, सहअस्तित्व एवं वसुधैव कुटुम्बकम् के भाव निहित हैं। पारस्परिक एकत्व की दिव्य संवेदनाओं को सहजने वाली सनातन वैदिक संस्कृति के उपासक होने पर गौरवान्वित हैं – हम …! भारतीय धर्म व संस्कृति विश्व की प्राचीनतम, आदिकालीन, सर्वोत्कृष्ट, ईश्वरीय ज्ञान वेद और सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों पर आधारित है। सम्पूर्ण विश्व में यही संस्कृति महाभारत काल व उसकी कई शताब्दियों बाद तक भी प्रवृत्त रहने सहित सर्वत्र फलती-फूलती रही है। सनातन’ का अर्थ है – शाश्वत या ‘हमेशा बना रहने वाला’, अर्थात् जिसका न आदि है और न अन्त। जीवन न तो जन्म से शुरू होता है, और न ही मृत्यु पर समाप्त हो जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने जन्म को अव्यक्त का व्यक्त होना और मृत्यु को व्यक्त का अव्यत्त होना कहा है। आत्मा अतींद्रिय है, इसलिए सामान्य संसारी व्यक्ति, जो प्रत्यक्ष को प्रमाण मानता है, शरीर के अस्तित्व तक ही जीवन को मानता है। सनातन वैदिक धर्म की मान्यता के अनुसार, जन्म-मृत्यु जीवन यात्रा के पड़ाव हैं। जीवनात्मा के जीवन में जन्म-मृत्यु का यह चक्र तब तक चलता रहता है, जब तक वह अपनी आखिरी पड़ाव पर नहीं पहुंच जाता। यह आखिरी पड़ाव ही आत्म साक्षात्कार है अथवा इष्ट की प्राप्ति है। अतः इस उपलब्धि के बाद सारी यात्रा समिट जाती है और इसके बाद कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता …।
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