पूज्य सद्गुरुदेव अवधेशानंद जी महाराज आशिषवचनम्

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
            ।। श्री: कृपा ।।
???? पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – कर्तापन का अभिमान, कृतघ्नता और दोषदृष्टि से निवृत्ति; भगवद भजन, निष्काम-सेवा और ईश-समर्पण के बिना संभव नहीं, अतः भगवद-समर्पण ही श्रेयस्कर है..! भक्ति भाव से भगवान की स्मृति में किये गए भजन जीवन में आनंद, उल्लास और उत्सव की बहार लेकर आते हैं। ये तीनों तत्व मानवीय जीवन में विकसित होना भागवत कथा सिखाती है। मन तथा इंद्रियों पर संयम रहने से साधन-भजन में सफलता मिलती है। भजन में एकाग्रता एवं भाव का अधिक महत्व है। भाव सिद्ध होने पर क्रिया गौण तथा भाव प्रधान हो जाता है। मौन-व्रत से आत्मबल में बहुत अधिक वृद्धि होती है। संसार में अनेक प्रकार के बल हैं यथा – शारीरिक, आर्थिक, सौंदर्य, विद्या तथा पद (सत्ता) का बल। लौकिक दृष्टि से उपर्युक्त सभी प्रकार के बल अपना महत्व रखते हैं, परंतु आत्म बल इन सभी बलों में सर्वोपरि है। अभौतिक और जागतिक सभी प्रकार की उन्नति के लिए आत्म बल की परम आवश्यकता होती है। मौन-व्रत से आत्म बल में निरंतर वृद्धि होती है। मनुष्य सत्य वस्तु की ओर बढ़ता है। भगवान् सत्यस्वरूप हैं और उनका विधान भी सत्य है। साधना में मौन-व्रत का बड़ा महत्व है। जब हम मौन होते हैं तभी हमें ईश्वर की समीपता का अहसास होता है। मौन-व्रत ही ऐसा साधन है जिससे व्यक्ति  अपने आस-पास दिव्यता को अनुभूत करता है। मौन व्रत के पालन से वाणी की कर्कशता दूर होती है, मृदु भाषा का उद्गम बनता है, अंतरात्मा में सुख की वृद्धि होती है और फिर विषय का त्याग करता हुआ साधक जीवन के अद्वितीय रस, भगवद् रस को प्राप्त करने लगता है। अतः साधक को मौन-व्रत के पालन में अंदर तथा बाहर से चुप होकर निष्ठापूर्वक एकांत में रहकर भगवन्नाम-जप करना चाहिए। ऐसा करने से ही आत्म बल में वृद्धि तथा नाम-जप में कई गुना सिद्धियां प्राप्त होती हैं…।
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – श्रीमद्भागवत कथा में श्रेष्ठ जीवन जीने के गूढ़ मंत्र छिपे हुए हैं। भागवत सुनने, कराने और पढ़ने से जीवन में  सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है, जिससे मनुष्य सुख-शांति का अनुभव करता है। पूज्य “आचार्यश्री” जी के अनुसार निष्काम सेवा को ही परमात्मा की सर्वोत्तम पूजा मानी गई है। सेवा का साधारण अर्थ है कि दूसरों को ईश्वर का अंश मानते हुए उनकी भलाई के लिए कार्य करना। समस्त प्रकार की सेवा का फल मीठा होता है, पर सात्विक निष्काम सेवा से ही जीव को मोक्ष प्राप्त होता है। सेवा राजसिक एवं तामसिक भी होती है। जब व्यक्ति कामना युक्त हो कर सेवा करता है तब वह राजसिक सेवा कहलाती है। वैसी सेवा जो अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को हानि पहुँचाने की इच्छा से की जाती है, वह तामसिक सेवा है। व्यक्ति झूठ, छल, कपट का सहारा लेकर सेवा का ढोंग तो करता है, परन्तु वास्तव में उसका भाव दूसरों का अहित करना होता है। सेवा रावण ने भी की और सेवा हनुमान जी ने भी की। रावण की सेवा सकाम भाव से थी। वह अंहकारी बन गया। जबकि श्रीहनुमान जी की सेवा निष्काम भाव की थी और श्रीहनुमान जी अष्टसिद्धि एवं नवनिधि के दाता बन गए …! अतः व्यक्ति को तामसिक सेवा तो कभी भी नहीं करनी चाहिए। ऐसा व्यक्ति नरक को जाता है। राजसिक सेवा का फल मिल कर मिट जाता है। कभी-कभी वह अंहकार भी पैदा करती है, जिससे वह भी नरकगामी बन जाता है। इसलिए हमें केवल सात्विक निष्काम सेवा ही करनी चाहिए। सभी प्रकार की सेवाएं उत्तम सेवा तो हैं लेकिन निष्काम सेवा ही सर्वोत्तम सेवा है। परमात्मा के प्रति निष्काम-प्रेम, निष्काम-सेवा व सभी प्राणियों के प्रति समदृष्टि ही परम भक्ति है। साधक को अहंकार और परनिंदा से बचना चाहिए। यह दोनों जीवन यात्रा में बाधक हैं। जब ऐसे विकार मन से निकल जाते हैं तो मनुष्य का मन ईश्वर भक्ति में लगने लगता है और नकारात्मक ऊर्जा समाप्त हो जाती है, जिससे उन्नति के नए-नए मार्ग प्रशस्त होते हैं। इससे हमें अपने नारायण स्वरूप गुरु की विशेष प्रसन्नता प्राप्त होती है जो हमारे मोक्ष का कारण बनती है…।

Comments are closed.