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पूनम शर्मा नई दिल्ली ,1 जून : ढाका और दिल्ली के बीच एक गंभीर और चिंताजनक राजनीतिक बदलाव देखा जा रहा है। बांग्लादेश में, जहां कभी लोकतंत्र की उम्मीद जगी थी, अब वहां नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. मुहम्मद युनूस इस्लामी कट्टरपंथियों के साथ गठबंधन करते नजर आ रहे हैं—और वो भी ऐसे समय में जब वे भारतीय हितों के सबसे मुखर आलोचक बनकर उभरे हैं।
इस सप्ताह तीन ऐसे बड़े घटनाक्रम हुए हैं जो न केवल बांग्लादेश बल्कि पूरे दक्षिण एशिया की स्थिरता पर सवाल खड़े करते हैं।
1. जमात-ए-इस्लामी: आतंकी संगठन से फिर बनी मान्यता प्राप्त पार्टी
जमात-ए-इस्लामी, जिसे 1971 में पाकिस्तान का साथ देने, हिंदू विरोधी हिंसा फैलाने और युद्ध अपराधों में लिप्त होने के कारण 2013 में प्रतिबंधित किया गया था, अब फिर से वैध राजनीतिक दल के रूप में उभरी है।
जिस पार्टी पर बलात्कार, हत्याएं और अल्पसंख्यकों पर हमलों का आरोप है, उसे अब अदालत ने चुनाव लड़ने की अनुमति दे दी है। यह वही जमात है जिसने बांग्लादेश के संविधान के खिलाफ काम किया और एक इस्लामी राष्ट्र की स्थापना की वकालत की थी।
चौंकाने वाली बात यह है कि इस पुनर्वास को डॉ. युनूस के समर्थन और उनके वकीलों की टीम की कानूनी कोशिशों का परिणाम बताया जा रहा है—जिसे वे “समावेशी लोकतंत्र” की ओर कदम बता रहे हैं।
क्या यह वास्तव में लोकतंत्र है, या कट्टरपंथ को वैध बनाने का एक राजनीतिक छद्म?
2. शेख हसीना को फाँसी की माँग – क्या यह न्यायिक मज़ाक है?
ढाका की अदालत में एक ऐसा मामला स्वीकार किया गया है जिसमें प्रधानमंत्री शेख हसीना को मौत की सजा देने की मांग की गई है। भले ही यह मामला अंतिम रूप से खारिज हो जाए, लेकिन इसका स्वीकार होना ही न्याय प्रणाली के राजनीतिक इस्तेमाल की ओर इशारा करता है।
युनूस, जो लंबे समय से शेख हसीना के विरोधी रहे हैं, अब न्यायपालिका के पुनर्गठन और हसीना समर्थक जजों को हटाकर राजनीतिक प्रतिशोध का रास्ता खोल चुके हैं।
जो अदालतें पहले युद्ध अपराधियों को सजा देती थीं, अब उन्हें लोकतांत्रिक नेताओं को सतााने का औज़ार बना दिया गया है।
3. युनूस की चीन के साथ नजदीकी और “चिकन नेक” में बंदरगाहों का प्रस्ताव
बांग्लादेश में आलोचना से घिरे युनूस अब चीन का रुख कर चुके हैं। उन्होंने न केवल भारी निवेश मांगा है, बल्कि भारत के लिए रणनीतिक दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील सिलीगुड़ी कॉरिडोर के नज़दीक बंदरगाहों को विकसित करने का प्रस्ताव दिया है।
यह “चिकन नेक” भारत के उत्तर-पूर्व को शेष देश से जोड़ता है। यहां चीनी प्रभाव बढ़ाना भारत की क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए सीधा खतरा है।
जो युनूस कभी भारत के साथ सौहार्द्र के प्रतीक थे, अब चीन की गोद में बैठकर भारत-विरोधी गठबंधन का हिस्सा बनते नजर आ रहे हैं।
भारत की प्रतिक्रिया: अवैध बांग्लादेशियों की वापसी और जल कूटनीति
भारत ने अब स्पष्ट प्रतिक्रिया देना शुरू कर दिया है। हाल ही में 1000 से अधिक अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों को वापस भेजा गया है। यह संदेश स्पष्ट है—भारत अब “धर्मशाला” की भूमिका में नहीं रहेगा।
साथ ही, भारत ने तीस्ता नदी के डैम खोल दिए, जिससे उत्तर बांग्लादेश के 76 से अधिक स्थानों पर बाढ़ आ गई। हालांकि आधिकारिक बयान इसे मौसमी जल प्रबंधन बता रहे हैं, लेकिन समय और संकेत दोनों ही राजनीतिक हैं।
भारत के लिए खतरा क्यों है जमात-ए-इस्लामी?
यह सिर्फ बांग्लादेश का मुद्दा नहीं है। जमात की पाकिस्तानी आईएसआई, लश्कर-ए-तैयबा और वैश्विक जिहादी नेटवर्कों से गहरी सांठगांठ है। इसके स्कूल, मदरसे और युवाओं के लिए गुप्त प्रशिक्षण शिविर भारत के लिए आंतरिक और सीमा पार दोनों तरह के खतरे उत्पन्न करते हैं।
इनका हिंदू विरोधी रवैया—मंदिरों को तोड़ना, चुन-चुनकर हत्याएं करना—कोई स्थानीय दंगा नहीं, बल्कि इस्लामी कट्टरपंथ के बड़े एजेंडे का हिस्सा है।
यह भारत की सांप्रदायिक शांति, सीमा सुरक्षा और कूटनीतिक संतुलन को सीधा चुनौती देता है।
चेतावनी की घंटी और एक नया संकट
डॉ. युनूस, जो एक समय विश्व के लिए विकास का प्रतीक थे, अब बांग्लादेश के सबसे विवादास्पद चेहरा बन चुके हैं। उन्होंने कट्टर ताकतों से हाथ मिला कर, राजनीतिक विरोधियों को समाप्त करने की मुहिम चला कर, और भारत को नजरअंदाज कर चीन को गले लगाकर बांग्लादेश को गहरे संकट में डाल दिया है।
भारत के सामने अब सवाल यह नहीं कि क्या प्रतिक्रिया दी जाए, बल्कि कैसे और कितनी तीव्र प्रतिक्रिया दी जाए।
बांग्लादेश, जो कभी दक्षिण एशिया का लोकतांत्रिक उदाहरण था, अब विभाजन के कगार पर है। जैसे-जैसे जमात की वापसी होती है, और युनूस सत्ता के पीछे का चेहरा बनते हैं, बांग्लादेश की आत्मा और भारत की सुरक्षा—दोनों ही दांव पर हैं।
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