वो गांधी जो नेहरू से टकराया… और जीत गया!

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पूनम शर्मा 

सोचिए कि… संसद में ग्यारह बजे तक सन्नाटा है। हर सांसद की निगाह एक युवक पर टिकी हुई है, जिसकी आवाज में आग है और आँखों  में सच्चाई की चमक। वो नाम था फिरोज गांधी — एक ऐसा व्यक्ति जिसने न सिर्फ नेहरू के वित्त मंत्री को बेनकाब कर दिया, बल्कि भारतीय लोकतंत्र को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने की हिम्मत दी।

आज यदि हम LIC को सरकारी संस्था मानते हैं, यदि संसद की बहसों को मीडिया बिना डर रिपोर्ट कर सकता है, तो उसका श्रेय किसी गांधी-नेहरू वंशज को नहीं, बल्कि उसी गांधी को जाता है जिसे कांग्रेस खुद आज भूल चुकी है — फिरोज गांधी।

एक क्रांतिकारी की शुरुआत

1912, मुंबई के एक पारसी परिवार में। वहीँ फिरोज का जन्म हुआ। बचपन से ही विद्रोही, नाराज़जाने। कॉलेज छोड़ दिया, स्वतंत्रता संग्राम में कूद गये। जेल गए — एक बार नहीं, तीन बार। पहली बार फैजाबाद में लाल बहादुर शास्त्री के साथ, दूसरी और तीसरी बार 1932 और 1933 में।

नेहरू परिवार के करीब पहुंचे, खासकर कमला नेहरू से। यहीं शुरू हुई इंदिरा और फिरोज की जिंदगी। 1933 में इंदिरा को प्रपोज किया, लेकिन जवाब था — “अभी नहीं।” फिर भी इन्होंने हार नहीं मानी। 1942 में शादी की, वो भी ऐसे समय में जब देश क्रांति की ज्वाला में झुलस रहा था। नेहरू नाराज़ हुए, महात्मा गांधी से शादी रुकवाने तक की कोशिश की — लेकिन इंदिरा और फिरोज ने पीछे नहीं हटे।

जब संसद में गूंजा नाम: फिरोज गांधी

1957। फिरोज दोबारा रायबरेली से सांसद चुने जाते हैं। लेकिन इस बार संसद में उनका अंदाज़ अलग था — धारदार, आक्रामक और तथ्यों से लैस। उन्होंने बीमा कंपनियों की धांधलियों पर दो घंटे लंबा भाषण दिया। लोग मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहे। आखिरकार, सरकार ने उनकी बात मानी और LIC का राष्ट्रीयकरण हुआ।

फिरोज ने कहा था  घोड़े को लगाम चाहिए… लेकिन हाथी को रोकना हो, तो ज़ंजीर चाहिए।”

सत्ता रूपी हाथी को रोकने के लिए वो ज़ंजीर खुद बन गए। एलआईसी-मुंधड़ा घोटाला: एक अकेला योद्धा, एक पूरा सिस्टम –और फिर आया वो मोड़, जिसने फिरोज को इतिहास में अमर कर दिया. फिर 1957 के अंत में यह खबर मिली कि LIC ने कांग्रेस के नजदीकी उद्योगपति  एच डी मुंधड़ा की कंपनियों के शेयर भारी कीमत पर खरीदे हैं। शक हुआ — उन्होंने बाजार में खुद दो हफ्ते के लिए शेयरों की कीमत ट्रैक की। और संसद में सीधे सवाल दाग दिए।सरकार ने सिर्फ मुंधड़ा की कंपनियों में ही निवेश क्यों किया?” “शेयर जब गिर रहे थे, तब उन्हें ऊंची कीमत पर क्यों खरीदा गया?” “क्या ये जनता के पैसों की लूट नहीं?”

वित्त मंत्री टी. ट. कृष्णमाचारी ने घबराकर जवाब दिया , लेकिन फिरोज की दलीलों के सामने टिक नहीं पाए। आखिरकार नेहरू को खुद जांच आयोग बिठाना पड़ा। आयोग ने मंत्री को नैतिक रूप से दोषी ठहराया और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।

एक गांधी जो गांधी -नेहरू परिवार से अलग था ।  सोचिए, यह आदमी नेहरू का दामाद था… पर जब देशहित की बात आ गई, तो उसने रिश्तों को ताक पर ले दिया। वह दौर था जबकि कांग्रेस अपराजेय ही समझी जाती थी। पर फिरोज, सत्ता से नहीं घबराए। उनके और नेहरू के बीच दरार आयी, लेकिन फिरोज अपना रास्ता नहीं बदला। कभी आपने किसी सांसद को संसद में अपने ही प्रधानमंत्री ससुर के खिलाफ लड़ते देखा है? फिरोज गांधी ने यह कर दिखाया।

एक दुखद अंत… लेकिन अमिट विरासत-1960 में, 48 की उम्र में ही फिरोज गांधी का निधन हो गया। दिल्ली के विलिंगडन अस्पताल में दिल का दौरा पड़ा… और वो शेर खामोश हो गया, जो सत्ता से लड़ना जानता था।  न तो कोई पदक प्रदान किया गया, न ही कोई भारत रत्न। कांग्रेस ने उनका नाम तक नहीं लिया, और आज की पीढ़ी उन्हें शायद इंदिरा गांधी के पति या राहुल गांधी के दादा तक ही जानती है।

लेकिन सच ये है — अगर भारत की संसद में आज कोई सरकार से सवाल पूछ सकता है, तो वो परंपरा  फिरोज गांधी ने शुरू की थी।

आज कि हर कोने में भ्रष्टाचार के खिलाफ झूठे नारे लगते हैं तब एक सच्चे योद्धा की कहानी गुम हो चुकी है। वो गांधी जिसने परिवारवाद के खिलाफ, सत्ता के खिलाफ, और भ्रष्टाचार के खिलाफ बगावत की — वो आज गुमनाम है।

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