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पूनम शर्मा
दशकों तक भारत के हृदय-प्रदेश पर रेड कॉरिडोर की खौफनाक परछाईं मंडराती रही। मध्य और पूर्वी भारत के सघन जंगलों, दूर-दराज़ गांवों और विद्रोह की विरासत से भरे इस क्षेत्र का नाम सुनते ही लैंडमाइन, खूनी संघर्ष और माओवादी आतंक की तस्वीर सामने आ जाती थी। लेकिन 2024-2025 में यह डरावना अध्याय इतिहास बन गया। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के निर्णायक नेतृत्व में भारत सरकार ने न केवल इस लंबे समय से चले आ रहे आंतरिक खतरे को खत्म किया, बल्कि लोकतांत्रिक शासन की ताकत को उन इलाकों तक पहुँचाया जहाँ कभी भारतीय संविधान की पहुँच तक नहीं थी।
अमित शाह: इस मिशन के आर्किटेक्ट
अमित शाह का यह अभियान सिर्फ सुरक्षा बलों की तैनाती भर नहीं था। यह रणनीतिक धैर्य, बहु-स्तरीय योजना और अडिग राजनीतिक इच्छाशक्ति की कहानी है। यह एक सीधा संदेश था—देश के भीतर और बाहर छिपे दुश्मनों के लिए: भारत अब वैचारिक संघर्ष की आड़ में सशस्त्र विद्रोह को बर्दाश्त नहीं करेगा।
जहाँ एक ओर शाह की निर्णायकता की प्रशंसा हो रही है, वहीं दूसरी ओर मानवाधिकार संगठनों और विपक्षी दलों ने “एनकाउंटर कल्चर” और “राज्य प्रायोजित हिंसा” जैसे आरोप लगाए। पर शाह अडिग हैं। उन्होंने हाल ही में कहा—“जिस देश में सड़क के लिए उठाया पत्थर भी हथियार बन जाए, वहां राष्ट्र निर्माण संभव नहीं।”
दशकों पुराना घाव
2004 से 2014 के बीच भारत में 16,000 से अधिक माओवादी हिंसा की घटनाएं हुईं। हर साल सैकड़ों जवान और नागरिक जान गंवाते थे। 2010 में दंतेवाड़ा में 76 सीआरपीएफ जवानों की हत्या इस संघर्ष का सबसे भयावह चेहरा बन गई।
- 2016, दंतेवाड़ा: लैंडमाइन ब्लास्ट में 7 जवान शहीद
- 2017, सुकमा: 25 जवानों की माओवादी घात में मौत
- बिहार, औरंगाबाद: 10 कोबरा कमांडो मारे गए
- ओडिशा, कंधमाल: माओवादी क्रॉसफायर में बच्चों समेत कई नागरिक मरे
2010 तक 126 ज़िलों में माओवादियों का प्रभाव था—इसे ही रेड कॉरिडोर कहा गया। यहां लोकतंत्र का कोई नामो-निशान नहीं था। आदिवासियों को “क्रांति” के नाम पर बंदूक की छाया में रखा गया, विकास को रोका गया।
शाह डोक्ट्रिन: रणनीति की दिशा बदलती है
2019 में गृह मंत्री बनने के बाद अमित शाह ने आंतरिक सुरक्षा को नया दृष्टिकोण दिया। 2024 आते-आते यह दृष्टिकोण दो चरणों में विभाजित एक सटीक रणनीति में बदल गया। यह था—बुद्धिमत्तापूर्ण ऑपरेशनों और जन-संपर्क का मेल।
पहला चरण: ऑपरेशन दंतेवाड़ा (21 अप्रैल – 12 मई 2025)
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा के गहरे जंगलों में यह ऑपरेशन शुरू हुआ। 21 दिन में 31 खूंखार माओवादी मारे गए—इनमें कई पर ₹1 करोड़ तक का इनाम था। सीआरपीएफ और राज्य पुलिस के संयुक्त ऑपरेशन ने माओवादी नेतृत्व को सीधा निशाना बनाया।
इस ऑपरेशन की खासियत इसकी सटीकता थी। कोई अंधाधुंध गोलीबारी नहीं। मारे गए आतंकियों में वे शामिल थे जो 2010 के दंतेवाड़ा और 2013 के झीरम घाटी हमले के मास्टरमाइंड थे।
सुरक्षा बलों की क्षति लगभग शून्य रही—केवल एक DRG जवान शहीद हुआ।
दूसरा चरण: पहलगाम प्रभाव और राष्ट्रीय स्तर पर शिकंजा
पहलगाम में जम्मू-कश्मीर में हुए एक और ऑपरेशन ने अलगाववाद और माओवादी नेटवर्क के आपसी संबंधों को उजागर किया। इसके बाद देशभर में शहरी नेटवर्कों पर कार्रवाई तेज हुई।
इस चरण के अंत तक 8,000 से अधिक माओवादी कैडर ने आत्मसमर्पण किया। ये सिर्फ बंदूकधारी नहीं थे—इनमें विचारक, भर्तीकर्ता, और शहरी नेटवर्क के सदस्य शामिल थे।
शहरी नक्सल नेटवर्क पर कड़ा प्रहार
अमित शाह के नेतृत्व में सरकार ने “अर्बन नक्सल” नाम से पहचाने जाने वाले नेटवर्क को बेनकाब किया—जिनमें कुछ एनजीओ, बुद्धिजीवी, और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल थे, जो विचारधारा के नाम पर माओवादियों को समर्थन देते थे।
शाह ने स्पष्ट किया: “जंगल में गोली चलाने वाला और शहर में उसे नैतिक आधार देने वाला, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।” पहली बार विश्वविद्यालयों, थिंक टैंकों और एनजीओ तक जांच पहुंची।
इससे शहरी और ग्रामीण माओवाद के बीच की आपूर्ति श्रृंखला टूट गई।
परिणाम: आंकड़ों की गवाही
- 2010 में माओवादी प्रभावित जिले: 126
अब 2025 में बचे: सिर्फ 38 - वामपंथी हिंसा में 81% की गिरावट
- सुरक्षा बलों पर हमलों में 73% की कमी (1851 से घटकर 509)
- 8,000 से अधिक माओवादी आत्मसमर्पण कर चुके
- 30 से ज्यादा शीर्ष माओवादी नेता मारे गए, करोड़ों के इनामी भी शामिल
अब उन इलाकों में सड़कें बन रही हैं, स्कूल खुल रहे हैं, और स्वास्थ्य केंद्र काम कर रहे हैं। यह न केवल एक प्रशासनिक जीत है, बल्कि हर उस बच्चे की जीत है जो अब डर के साए के बिना स्कूल जा सकता है। हर उस किसान की जीत है जो अब खेत जोत सकता है। और हर उस पुलिसकर्मी की जीत है जो अब जंगल में गश्त लगाकर सुरक्षित लौटता है।
एक खून भरे अध्याय का समापन
अमित शाह द्वारा संचालित यह अभियान भारत की आंतरिक सुरक्षा के इतिहास में मील का पत्थर है। यह रणनीतिक था, जहां जरूरत पड़ी, कठोर था, और जहां संभव हुआ, सहानुभूतिपूर्ण भी। यह सिर्फ एक समस्या का हल नहीं, बल्कि भारत की संप्रभुता का दोबारा उद्घोष था।
रेड कॉरिडोर अब इतिहास है। और यह इतिहास, भारत के लोकतंत्र की विजयगाथा बन चुका है।
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