महमूदाबाद विवाद : एक ऐतिहासिक गलती , कानूनी त्रुटियाँ और राष्ट्रीय सुरक्षा पर प्रश्नचिन्ह !

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पूनम शर्मा 

महमूदाबाद परिवार और अली खान महमूदाबाद का पूरा मामला भारत की न्यायिक, राजनीतिक और बौद्धिक व्यवस्था में मौजूद ढील और पाखंड को उजागर करता है। यह एक ऐसा उदाहरण है, जहाँ  ऐतिहासिक रूप से राष्ट्र-विरोधी कार्यों से जुड़े परिवार को न सिर्फ माफ किया गया, बल्कि कानूनी ढील और राजनीतिक संरक्षण के कारण उन्हें फिर से समृद्ध होने का अवसर भी मिला। इस संदर्भ में अली खान महमूदाबाद की गिरफ़्तारी महज़ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुद्दा नहीं, बल्कि उससे कहीं बड़ा राष्ट्रीय सुरक्षा और सांस्कृतिक असंतुलन का सवाल है।

इतिहास से सबक नहीं सीखा गया

सबसे पहली विडंबना यह है कि महमूदाबाद परिवार का मुखिया मोहम्मद आमिर अहमद खान विभाजन से पहले मुस्लिम लीग का कोषाध्यक्ष था और पाकिस्तान की स्थापना में सक्रिय भूमिका निभा चुका था। ऐसे व्यक्ति की संपत्ति को “शत्रु संपत्ति” के रूप में अधिग्रहित करना स्वाभाविक और राष्ट्रीय हित में था। परंतु, यह विडंबना है कि 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिग्रहण को अवैध घोषित कर दिया और संपत्ति परिवार को वापस दे दी।

यहाँ न्यायिक प्रणाली की सबसे बड़ी खामी दिखाई देती है:

शत्रु संपत्ति अधिनियम” को राष्ट्रीय सुरक्षा को दृष्टिगत रखकर बनाया गया था, न कि व्यक्तिगत उत्तराधिकार के अधिकार की रक्षा के लिए।

फिर भी न्यायालय ने इस भावना को नज़रअंदाज़ करते हुए संपत्ति को परिवार को सौंप दिया। यह एक खतरनाक उदाहरण है जहाँ व्यक्तिगत हित को राष्ट्रीय सुरक्षा से ऊपर रखा गया। इससे भविष्य में हजारों अन्य “शत्रु संपत्तियों” के दावे भी खुल सकते हैं — जो सीधे भारत की संप्रभुता को कमजोर कर सकते हैं।

राजनीतिक पाखंड और वोट बैंक की राजनीति

जब यूपीए सरकार ने 2010 में इस निर्णय को पलटने का प्रयास Enemy Property Ordinance के ज़रिए किया, तो वोट बैंक के दबाव में उसे वापस ले लिया गया। कांग्रेस जैसी पार्टी, जो खुद को धर्मनिरपेक्ष कहती है, ने देश की सुरक्षा से समझौता कर लिया। यह दोहरा रवैया साबित करता है कि देश की एकता और सुरक्षा से ज़्यादा जरूरी उन्हें अल्पसंख्यक तुष्टिकरण लगा।

वहीं, एनडीए सरकार ने 2017 में इस अधिनियम को संशोधित कर एक सीमा तक सुधार जरूर किया, पर तब तक काफी संपत्तियाँ कानूनी जालसाजी के जरिए परिवार के पास जा चुकी थीं।

बौद्धिक पाखंड और अली खान महमूदाबाद

अली खान महमूदाबाद, जो अब अशोका यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान विभाग के प्रमुख हैं, अपने बयानों में भारत के राष्ट्रवाद और सैन्य कार्रवाइयों की आलोचना करते हैं। विशेष रूप से जब वे “ऑपरेशन सिंदूर” को “ऑप्टिक्स” और “हिपोक्रेसी” कहकर खारिज करते हैं, तो वह न केवल सैन्य बलों का अपमान करते हैं, बल्कि अपने पारिवारिक इतिहास की पृष्ठभूमि को भी झुठलाते हैं।

क्या जिन लोगों को देश-विरोधी गतिविधियों से अर्जित संपत्ति मिली हो, उन्हें देश की सुरक्षा पर नैतिक भाषण देने का अधिकार है?

यहाँ  अली खान की आलोचना न केवल असंवेदनशील है, बल्कि उसकी बौद्धिक नैतिकता भी संदिग्ध हो जाती है। एक ओर वे “अशरफी वर्चस्व” के ढांचे को बनाए रखते हैं, वहीं दूसरी ओर वे खुद को उत्पीड़ितों का प्रतिनिधि भी मानते हैं। यह विरोधाभास उनके कथनों को खोखला और अवसरवादी बना देता है।

कानूनी छिद्र और राष्ट्रहित से समझौता

इस पूरे मामले में जो सबसे चिंताजनक तथ्य सामने आता है वह यह है कि कैसे भारत की न्यायिक और राजनीतिक व्यवस्था में मौजूद  loopholes (कानूनी छिद्र) का लाभ उठाकर एक परिवार ने हजारों करोड़ की संपत्ति पर फिर से अधिकार जमा लिया।

1 “शत्रु संपत्ति अधिनियम” में यह स्पष्ट नहीं था कि उत्तराधिकारियों का क्या होगा, जिससे 2005 में परिवार को जीत मिली।

2 न्यायालय ने सुरक्षा से अधिक उत्तराधिकार कानून को प्राथमिकता दी, जिससे राष्ट्रीय हित को नुकसान हुआ।

3 राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी से Enemy Property (Amendment) Ordinance  कभी स्थायी कानून नहीं बन पाया।

4 न्यायिक सक्रियता के नाम पर ऐतिहासिक सत्य और देश की एकता को नज़रअंदाज़ किया गया।

राष्ट्रीय एकता की रक्षा के लिए स्पष्ट नीति आवश्यक

यह मामला यह दर्शाता है कि यदि हम राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुता को राजनीतिक लाभ और बौद्धिक पाखंड की भेंट चढ़ाते रहेंगे, तो हम उन शक्तियों को प्रोत्साहित करेंगे जो भारत की अखंडता को कमजोर करती हैं।

भारत को ऐसे मामलों में स्पष्ट, कठोर और नीतिगत निर्णय लेने होंगे

सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में राष्ट्रीय सुरक्षा की प्राथमिकता तय होनी चाहिए।

Enemy Property कानून को और अधिक सख्त बनाया जाना चाहिए, जिसमें कोई उत्तराधिकार या कानूनी अपवाद की गुंजाइश न हो।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर राष्ट्रीय भावनाओं और सैनिकों के सम्मान पर प्रश्न उठाने वालों को सख्ती से जवाब देना चाहिए — कानूनी रूप से, नैतिक रूप से और सार्वजनिक विमर्श में।

महमूदाबाद प्रकरण एक चेतावनी है कि इतिहास में की गई गलतियों को यदि समय रहते नहीं सुधारा गया, तो वे भविष्य में और भी बड़े संकट बनकर उभरती हैं। अगर देश के बंटवारे में योगदान देने वाले आज उसके सबसे बड़े लाभार्थी बनकर राष्ट्रवाद पर भाषण देने लगें, तो यह हमारी संप्रभुता पर सबसे बड़ा हमला है — अंदरूनी और वैचारिक रूप से।

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