ना राजनयिक संबंध, ना मान्यता, ना कोई बातचीत। लेकिन अब पर्दे के पीछे एक नई कहानी लिखी जा रही है —
भारत और अफगानिस्तान (तालिबान शासन) के बीच ‘वार्ता’ फिर से शुरू हो गई है।
तो सवाल है: जिस सरकार को भारत आज तक मान्यता नहीं देता, उससे आखिर बात क्यों?
क्या यह कूटनीतिक मजबूरी है, या कोई बड़ा रणनीतिक दांव?
2021 में जब अमेरिका ने अफगानिस्तान से वापसी की और तालिबान ने सत्ता हथिया ली, भारत ने साफ कर दिया था कि
“हम आतंकवाद के साथ नहीं खड़े हो सकते।”
तालिबान शासन को मान्यता नहीं दी गई, भारतीय दूतावास बंद हुआ और कूटनीतिक रिश्ते लगभग शून्य हो गए।
भारत को डर था —
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तालिबान शासन भारत विरोधी आतंकी संगठनों को शरण देगा
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पाकिस्तान-अफगान गठजोड़ भारत के खिलाफ रणनीतिक रूप लेगा
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कश्मीर में फिर से आतंक की लहर लौटेगी
1. भू-राजनीतिक दबाव:
चीन ने अफगानिस्तान में निवेश शुरू कर दिया है। पाकिस्तान पहले ही ‘भाईचारा’ दिखा चुका है।
भारत के लिए पीछे रहना रणनीतिक भूल हो सकता था।
2. काबुल के नए संकेत:
तालिबान के कुछ गुट अब अंतरराष्ट्रीय मान्यता की तलाश में नरमी दिखा रहे हैं।
उन्होंने भारत से मानवीय सहायता, व्यापार और मेडिकल वीजा के लिए दरवाज़े खटखटाए हैं।
3. भारत का ‘वॉच एंड टॉक’ सिद्धांत:
भारत बिना आधिकारिक मान्यता दिए, धीरे-धीरे ‘बातचीत के रास्ते’ खोल रहा है — ताकि स्थिति पर नजर भी बनी रहे और प्रभाव भी।
भारत जानता है — अफगानिस्तान को नज़रअंदाज़ करना लंबी दौड़ में आत्मघाती होगा।
चीन-पाक की जुगलबंदी के बीच अगर भारत पीछे रहा, तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक सुरक्षा पर असर पड़ेगा।
इसलिए यह बातचीत “नजदीकी नहीं, निगरानी” के इरादे से हो रही है।
कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने सरकार से जवाब मांगा है:
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क्या सरकार तालिबान को मान्यता देने जा रही है?
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क्या कूटनीति के नाम पर भारत अपने सिद्धांत छोड़ रहा है?
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क्या यह ‘डिप्लोमेसी या डील’ है?
भारत और अफगानिस्तान के बीच जो संवाद हो रहा है, वो कोई मैत्री संधि नहीं, बल्कि एक रणनीतिक जासूसी है — ताकी दुश्मन के इरादों को पहले से भांपा जा सके।
भारत अभी तालिबान को गले लगाने नहीं जा रहा — लेकिन आंखें मूंदकर बैठना भी अब विकल्प नहीं।
दुश्मन के किले में घुसना, उसकी नब्ज़ पहचानना और अपने फायदे का मोर्चा खोलना — यही है भारत की नई अफगान नीति।
और शायद यही कारण है कि बातचीत की मेज़ अब बंद कमरों में फिर से सजाई जा रही है।
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