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पटना, 30 अप्रै ल 2025: बिहार में जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, वैसे-वैसे राजनीतिक दलों की रणनीति भी तेज़ होती जा रही हैं। राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के नेता तेजस्वी यादव का हालिया बयान—जिसमें उन्होंने वैश्य समुदाय को सुरक्षा, सम्मान और राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने का वादा किया—को इस चुनावी माहौल में केवल एक सामाजिक प्रतिबद्धता के रूप में देखना गलत होगा। यह बयान सीधे-सीधे भाजपा के पारंपरिक वोट बैंक में सेंध लगाने की एक सुनियोजित रणनीति है, जिसमें जातीय पहचान और भावनाओं का बखूबी दोहन किया जा रहा है।
तेजस्वी यादव ने अपने भाषण में महाराणा प्रताप के सहयोगी भामाशाह को याद करते हुए वैश्य समुदाय को एक गौरवशाली परंपरा से जोड़ने की कोशिश की। उन्होंने कहा, “यदि आप एक कदम हमारे साथ चलें तो तेजस्वी चार कदम आपके साथ चलेगा। यह भाषा केवल एक राजनीतिक भाषण नहीं, बल्कि एक संकेत है कि आरजेडी अब केवल मुस्लिम-यादव (MY) समीकरण से बाहर निकलकर नये सामाजिक वर्गों को जोड़ने की कोशिश कर रही है। सवाल यह है कि क्या यह प्रयास ईमानदारी से किया गया है, या यह सिर्फ एक और चुनावी स्टंट है?
भाजपा के वोट बैंक पर चोट?
बिहार की राजनीति में वैश्य या बनिया समुदाय को पारंपरिक रूप से भाजपा का मजबूत समर्थक माना जाता रहा है। यह वर्ग आर्थिक रूप से सशक्त है, व्यापारिक हितों से जुड़ा है और राजनीतिक रूप से सतर्क भी। आरजेडी के खिलाफ इस वर्ग की दूरी का एक बड़ा कारण पार्टी की पुरानी छवि रही है—”जंगलराज”, माफियाराज, और व्यापारियों पर बढ़ते हमले। ऐसे में तेजस्वी यादव का यह दावा कि उनकी सरकार व्यापार समर्थक रही है और वे वैश्य समुदाय को “डर से मुक्त” बिहार देंगे, अपने आप में एक विरोधाभास है।
जातीय संतुलन बनाम विकास की राजनीति
तेजस्वी यादव ने अपने भाषण में 2020 विधानसभा चुनाव में 15 वैश्य उम्मीदवारों को टिकट देने और 2024 लोकसभा चुनाव में 3 वैश्य उम्मीदवारों को मैदान में उतारने का हवाला दिया। यह संख्या भले ही प्रतीकात्मक रूप से बड़ी लगे, लेकिन क्या यह समुदाय की व्यापक राजनीतिक भागीदारी का संकेत है, या सिर्फ गणितीय संतुलन साधने की एक चाल है?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि आरजेडी अब जातीय पहचान को विकास के एजेंडे पर हावी कर रही है। तेजस्वी का यह कहना कि “हमें सिर्फ 5 साल का मौका दीजिए, हम एक नया बिहार बना एँगे ,” सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन उनके पूरे भाषण में कहीं भी यह स्पष्ट नहीं किया गया कि वे वैश्य समुदाय या व्यापारिक वर्ग के लिए क्या ठोस नीतिगत योजना लेकर आएँगे । क्या यह भी अन्य वादों की तरह हवा में ही रह जाएगा?
वैश्य समुदाय और असुरक्षा की राजनीति
तेजस्वी ने एनडीए सरकार पर व्यापारियों की उपेक्षा का आरोप लगाते हुए कहा कि व्यापारी वर्ग डर में जी रहा है—हत्या, लूट, और अपहरण की घटनाएं बढ़ी हैं। उन्होंने यह भी कहा कि सरकारें मूकदर्शक बनी हुई हैं। यह बयान सत्ता पक्ष पर तीखा हमला जरूर है, लेकिन यह भूलना नहीं चाहिए कि जब आरजेडी की सरकार थी, तब भी व्यापारियों को सुरक्षा को लेकर गंभीर शिकायतें थीं। ऐसे में क्या तेजस्वी यादव की यह चिंता वास्तविक है, या केवल राजनीतिक फायदा उठाने का एक और प्रयास?
जातीय राजनीति की सीमाएँ
बिहार की राजनीति जातीय समीकरणों के इर्द-गिर्द घूमती रही है—चाहे वह लालू यादव का ‘MY’ समीकरण हो, नीतीश कुमार का ‘सात निश्चय’ योजना के साथ EBC कार्ड हो, या भाजपा की हिंदू एकता की कोशिश। लेकिन अब मतदाता धीरे-धीरे इन जातीय झुनझुनों से ऊपर उठता दिख रहा है। युवा मतदाता रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य की बात करता है, और ऐसे में केवल जातीय अपीलों के सहारे चुनाव जीतना आसान नहीं रहा।
निष्कर्ष: भावनात्मक अपील या राजनीतिक अवसरवाद?
तेजस्वी यादव का भामाशाह की जयंती पर वैश्य समुदाय को लुभाने का प्रयास कोई सामाजिक क्रांति नहीं, बल्कि एक सोची-समझी चुनावी रणनीति है। इसमें भावनात्मक प्रतीकों, जातीय पहचानों और ऐतिहासिक पात्रों का इस्तेमाल कर वोट बैंक तैयार करने की कोशिश की जा रही है। पर सवाल यह है कि क्या यह समुदाय इतनी आसानी से इस अपील में बह जाएगा?
राजनीति में जातीय पहचान की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन जब इसे केवल चुनावी लाभ के लिए इस्तेमाल किया जाए और ज़मीनी नीतियों से उसका कोई संबंध न हो, तो यह केवल अवसरवाद कहलाता है। तेजस्वी यादव को अब यह साबित करना होगा कि उनके वादे महज़ भाषण नहीं, बल्कि भविष्य की ठोस योजना का हिस्सा हैं।
बिहार की जनता सब देख रही है, और अब केवल जाति का नाम लेकर वोट नहीं मिलते—काम दिखाना पड़ता है।
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