क्या बांग्लादेश में सत्ता पलट की स्क्रिप्ट लिखी जा रही है ? लोकतंत्र की आड़ में तख्ता-पलट ? यूनूस, अमेरिका और एक देश की होती हुई नीलामी
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समग्र समाचार सेवा
ढाका 20 मई –बांग्लादेश इन दिनों एक अदृश्य तूफान की चपेट में है। एक के बाद एक घटनाएं ऐसी घट रही हैं, जो न सिर्फ बांग्लादेश की संप्रभुता पर सवाल खड़े करती हैं, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया के भू-राजनीतिक संतुलन को हिला देने में सक्षम हैं। सबसे चौंकाने वाली खबर यह है कि देश के आर्मी चीफ को दरकिनार किया जा रहा है, जबकि बड़े फैसले उनके बिना लिए जा रहे हैं। और यह सब उस वक्त हो रहा है, जब देश में चुनाव नाम की कोई प्रक्रिया नहीं बची — और लोकतंत्र एक दिखावे का मुखौटा भर बन गया है।
जब आर्मी चीफ बोले— ये चुनाव फर्जी हैं
इतिहास में शायद पहली बार ऐसा हो रहा है जब किसी देश की सेना और उसका प्रमुख सार्वजनिक रूप से कह रहे हैं कि देश में जो चुनाव हो रहे हैं, वो दरअसल लोकतंत्र के नाम पर धोखा हैं। बांग्लादेश के सेना प्रमुख जनरल बकारोज़ ज़मां को न सिर्फ आंतरिक निर्णयों से बाहर रखा गया, बल्कि उनके देश लौटने के दौरान ही सरकार ने नासिक पॉइंट जैसे संवेदनशील इलाकों को विदेशी ताकतों के हवाले कर दिया — वो भी सेना को बताए बिना।
यह पूरी स्थिति उस समय और भी संवेदनशील बन गई, जब यह खबर आई कि अमेरिका ने “यूनिटरी ह्यूमैनिटेरियन कॉरिडोर” के नाम पर म्यांमार सीमा से सटे इलाकों में सैन्य दखल की योजना बनाई है। यह योजना पहली नजर में मानवता के नाम पर रोहिंग्या शरणार्थियों की वापसी के लिए है, लेकिन सूत्रों के अनुसार, इसका असली मकसद है — अमेरिकी सैन्य नियंत्रण स्थापित करना।
अमेरिका की “मदद” या संप्रभुता की हत्या?
बांग्लादेश और अमेरिका के बीच कुछ बैठकों ने यह साफ कर दिया है कि खेल कहीं बड़ा और गहरा है। जनरल ज़मां ने अमेरिकी अधिकारियों से मुलाकात की, जिनमें यूएस डिप्लोमैट गिला एफ और लेफ्टिनेंट कर्नल माइकल जैसे नाम शामिल हैं। इन बैठकों का मकसद बांग्लादेश की भूमि पर अमेरिकी लॉजिस्टिक्स और सप्लाई कॉरिडोर स्थापित करना है।
पिछली सरकार की मुखिया शेख हसीना ने जब इस कदम का विरोध किया, तो उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया गया। हसीना ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि अमेरिका बांग्लादेश का भूगोल बदलना चाहता है — और नए राष्ट्रों का निर्माण कर, क्षेत्र में वर्चस्व पाना चाहता है। अब जब हसीना को हटा दिया गया, तो उनकी जगह अमेरिका ने एक “डालाल” सरकार स्थापित कर दी है — जो हर शर्त मानने को तैयार है।
यूनूस: नोबेल या नेपथ्य का खेल?
इस पूरे घटनाक्रम में सबसे रहस्यमयी और खतरनाक भूमिका निभा रहे हैं मोहम्मद यूनूस — वही व्यक्ति जिन्हें नोबेल शांति पुरस्कार मिल चुका है, वही जो कभी गरीबी हटाने का प्रतीक थे। लेकिन अब, यूनूस पर आरोप है कि वह अमेरिका और पश्चिमी ताकतों के लिए बांग्लादेश की राजनीतिक और सैन्य संरचना को गिरवी रखने का काम कर रहे हैं।
यूनूस को सरकार का “चीफ एडवाइजर” बताया जा रहा है। उनके माध्यम से बांग्लादेश की नीतियां तय की जा रही हैं — सेना की जानकारी के बिना संवेदनशील फैसले लिए जा रहे हैं। यही नहीं, देश की आर्थिक नीति भी अब उन लोगों के हाथ में है जो या तो बाहरी विचारधारा के एजेंट हैं या कट्टरपंथ के अनुयायी।
कट्टरता और आतंकी संगठनों की घुसपैठ
बांग्लादेश के आर्थिक और प्रशासनिक ढांचे में इस समय जिस तरह से कट्टर विचारधारा को आगे बढ़ाया जा रहा है, वह पाकिस्तान के तालिबानीकरण की याद दिलाता है। हाल ही में सेना ने 10 ऐसे आतंकियों को गिरफ्तार किया है, जिन्हें रणनीतिक रूप से तैयार किया गया था। ये सिर्फ आतंकी नहीं, बल्कि राजनीतिक हथियार हैं, जिनका इस्तेमाल जनता में भय फैलाकर सत्ता पर कब्जा बनाए रखने के लिए किया जाएगा।
ये वही मॉडल है जो पाकिस्तान में अपनाया गया था — और अब बांग्लादेश में लागू किया जा रहा है। अमेरिका का समर्थन, यूनूस का नेतृत्व, और एक कठपुतली सरकार — ये तिकड़ी मिलकर बांग्लादेश को नई गुलामी की ओर धकेल रही है।
चुनाव के बिना लोकतंत्र?
दुनिया भर में सवाल उठ रहे हैं — क्या कोई लोकतंत्र बिना चुनाव के संभव है? बांग्लादेश में इस समय कोई वैध चुनाव प्रक्रिया नहीं है। शेख हसीना की पार्टी को बैन कर दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र में भी चर्चा हो रही है कि बिना राजनीतिक पार्टियों के लोकतंत्र कैसे काम करता है?
और यही तो सबसे बड़ा सवाल है — अगर देश की सबसे बड़ी पार्टी को ही चुनाव लड़ने से रोक दिया गया है, तो यह लोकतंत्र नहीं, बल्कि एक नई तरह की अधिनायकवादी व्यवस्था है।
सेना में आंतरिक फूट?
सेना में भी अब आंतरिक मतभेद साफ दिखाई दे रहे हैं। जनरल ज़मां ने सभी वरिष्ठ अधिकारियों को “कॉम्बैट यूनिफॉर्म” में मीटिंग के लिए बुलाया — यह सामान्य स्थिति नहीं है। विश्लेषकों का मानना है कि यह एक प्रकार की चेतावनी है — एक संकेत कि देश की रक्षा करने वाली संस्था अब खुद असुरक्षित महसूस कर रही है।
बैठक में सेना प्रमुख ने साफ तौर पर कहा कि बांग्लादेश अब एक चौराहे पर खड़ा है — या तो संप्रभुता को बचाया जाए, या विदेशी हस्तक्षेप को स्वीकार कर गुलामी की ओर बढ़ा जाए।
निष्कर्ष: एक देश, एक चाल, एक षड्यंत्र
बांग्लादेश की स्थिति इस समय नाजुक मोड़ पर है। सेना दरकिनार हो रही है, लोकतंत्र का मुखौटा उतर रहा है, और यूनूस जैसे चेहरे पीछे से डोरियां खींच रहे हैं। अमेरिका, पाकिस्तान और अन्य ताकतें इस छोटे से देश को अपने भू-राजनीतिक खेल का मोहरा बना रही हैं।
और हम सब बस यही सोच रहे हैं — क्या कोई देश बिना चुनाव के लोकतांत्रिक हो सकता है? क्या विदेशी ताकतों को इस तरह किसी देश की नीतियों में घुसपैठ करने का हक है?
बांग्लादेश की कहानी सिर्फ बांग्लादेश की नहीं है — यह पूरे दक्षिण एशिया को चेतावनी है कि अगर जनता नहीं जागी, तो अगला नंबर किसी का भी हो सकता है।
यह संघर्ष अब सिर्फ सत्ता का नहीं, बल्कि संप्रभुता और अस्तित्व का है। देश का भविष्य कैसा होगा।
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