कंचा गच्चीबोवली में पेड़ कटाई पर सुप्रीम कोर्ट सख्त: क्या जंगल को कंक्रीट के सपनों के लिए कुर्बान किया गया?
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पूनम शर्मा
नई दिल्ली ,15 मई : पर्यावरण उल्लंघनों को लेकर न्यायपालिका की बढ़ती नाराजगी को दर्शाते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने तेलंगाना सरकार को हैदराबाद के रंगारेड्डी जिले में स्थित 400 एकड़ कंचा गच्चीबोवली वनभूमि में अवैध पेड़ों की कटाई के लिए कड़ी फटकार लगाई है। शीर्ष अदालत की चेतावनी स्पष्ट थी: या तो कटे हुए जंगल को बहाल करो, या फिर मुख्य सचिव और छह अन्य वरिष्ठ अधिकारियों को उसी उजड़े क्षेत्र के पास “अस्थायी जेल” भेजा जाएगा।
भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई ने 15 मई को सुनवाई के दौरान यह सख्त चेतावनी दी। यह सामने आया कि पेड़ों की कटाई एक लंबे सप्ताहांत में की गई, जब अदालतें बंद थीं—संकेत यह था कि यह कदम न्यायिक निगरानी से बचने के लिए जानबूझकर उठाया गया।
“राज्य को यह तय करना है कि वह जंगल बहाल करेगा या मुख्य सचिव और अधिकारी जेल जाएंगे,” चीफ जस्टिस गवई ने दो टूक कहा, एक स्पष्ट संदेश देते हुए कि संस्थागत जवाबदेही कोई विकल्प नहीं है।
तेलंगाना सरकार की ओर से वरिष्ठ वकील ए.एम. सिंघवी ने तर्क दिया कि राज्य का कार्य कानून के खिलाफ नहीं था और विकास तथा पर्यावरण संरक्षण साथ-साथ चल सकते हैं। उन्होंने अदालत से आग्रह करते हुए कहा, “क्या मैं आपके लॉर्डशिप्स को मनाने का मौका नहीं पा सकता? क्या मुझे अभी अपना मामला वापस लेना होगा?” लेकिन अदालत ने उनकी दलीलों को नकार दिया।
मामले का केंद्र उस तेज़ी और तरीके में छिपा है जिससे प्रकृति को कुचला गया। अदालत में प्रस्तुत तस्वीरों में स्पष्ट रूप से देखा गया कि खुदाई मशीनें घने पेड़-पौधों को नष्ट कर रही थीं। भारतीय वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार, साफ की गई 104 एकड़ भूमि में से 60% से अधिक क्षेत्र मध्यम से घने वन क्षेत्र के रूप में पहचाना गया। यह कोई सूखी ज़मीन नहीं थी—यह शहर के फेफड़े थे।
एमिकस क्यूरी के रूप में उपस्थित वरिष्ठ वकील के. परमेश्वर ने अदालत को सूचित किया कि यह जानकारी महज़ अफवाह नहीं थी, बल्कि सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी को दी गई आधिकारिक रिपोर्ट का हिस्सा थी। उन्होंने कहा, “सिर्फ दो रातों में इतने घने जंगल का सफाया हो जाना दर्शाता है कि यह पूर्व नियोजित था।” अदालत ने पूछा, “इतनी जल्दी सब कैसे हुआ? ऐसा लगता है कि सब कुछ पहले से तय था।”
और भी चिंताजनक यह था कि राज्य सरकार ने इस कार्य के लिए आवश्यक पर्यावरणीय स्वीकृति (Environment Clearance) नहीं ली थी। अदालत ने याद दिलाया कि 4 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने देशभर में किसी भी प्रकार की वन क्षति गतिविधियों पर रोक लगा दी थी। इस निर्देश की अनदेखी न सिर्फ कानून का उल्लंघन है, बल्कि यह जनहित और पर्यावरणीय उत्तरदायित्व की अवहेलना भी है।
राज्य सरकार का यह दावा कि यह भूमि वन के रूप में अधिसूचित नहीं थी, जब तक विकास कार्य शुरू नहीं हुआ, बेहद खोखला लगता है। पर्यावरणीय क्षति को तकनीकी बहानों से छिपाया नहीं जा सकता। चाहे वह भूमि आधिकारिक रूप से “वन” घोषित हुई हो या नहीं, उसकी पारिस्थितिकीय भूमिका एक जंगल की थी—और उसे उसी तरह की सुरक्षा मिलनी चाहिए थी।
पेड़ों की कटाई ऐसे समय में शुरू करना जब अदालतें बंद थीं, और निगरानी की कोई संभावना नहीं थी—इससे संदेह और भी गहरा होता है। मुख्य न्यायाधीश ने तीखा सवाल किया, “अगर आपकी मंशा सही थी, तो आपने पेड़ काटने का काम लंबे सप्ताहांत में क्यों शुरू किया?”
इस पूरे मामले में छात्रों द्वारा उजागर की गई जानकारी को लेकर उनके खिलाफ दर्ज की गई FIRs ने स्थिति को और संवेदनशील बना दिया है। हालांकि कोर्ट ने इस सुनवाई में उस विषय पर विस्तार से विचार नहीं किया, लेकिन छात्रों को उपयुक्त कानूनी मंचों पर जाने की अनुमति दी गई।
यह मामला केवल पेड़ों का नहीं है—यह प्राथमिकताओं का सवाल है। तकनीकी विकास और शहरी विस्तार की दौड़ में सरकारें अगर पर्यावरणीय मूल्यों को रौंदती रहेंगी, तो भावी पीढ़ियों के लिए रहने लायक भविष्य बचाना मुश्किल होगा।
कोई भी वृक्षारोपण कार्यक्रम तुरंत उस पारिस्थितिकी तंत्र को नहीं लौटा सकता जो सदियों में बना था। कंक्रीट तो कुछ महीनों में खड़ा हो सकता है, लेकिन जंगल सदियों में विकसित होते हैं।
अगली सुनवाई 23 जुलाई को निर्धारित है। देश की नजरें अब तेलंगाना सरकार पर टिकी हैं—क्या वह जिम्मेदारी स्वीकार करेगी और पुनः वन बहाली की ओर बढ़ेगी, या फिर कानूनी प्रक्रिया का मुकाबला करते हुए गलत का बचाव करती रहेगी?
संदेश स्पष्ट है—बुलडोज़र पेड़ों को गिरा सकते हैं, लेकिन कानून को नहीं।
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