आचार्य विद्यासागर जी

हमारी हालत उस कबूतर की तरह हो रही है, जो पेड़ पर बैठा है और पेड़ के नीचे बैठी बिल्ली को देखकर अपना होश-हवास खो देता है, अपने पंखों की शक्ति को भूल बैठता है और स्वयं घबराकर उस बिल्ली के समक्ष गिर जाता है, तो उसमें दोष कबूतर का ही है।
ज्ञान का प्रवाह तो नदी के प्रवाह की तरह है। उसे सुखाया नहीं जा सकता, बदला जा सकता है। इसी प्रकार ज्ञान का नाश नहीं किया जा सकता है, उसे स्व-पर कल्याण की दिशा में प्रवाहित किया जा सकता है। यही ज्ञानोपयोग है।
‘अभिक्ष्णज्ञानोपयोग’ शब्द तीन शब्दों से मिल कर बना है, अभिक्षण+ज्ञान+उपयोग अर्थात निरंतर ज्ञान का उपयोग करना ही अभिक्ष्णज्ञानोपयोग है। आत्मा में अनंत गुण हैं और उनके कार्य भी अलग-अलग हैं। ज्ञान गुण इन सभी की पहचान करता है। सुख जो आत्मा का एक गुण है, उसकी अनुभूति भी ज्ञान द्वारा ही संभव है। ज्ञान ही वह गुण है, जिसकी सहायता से पाषाण में से स्वर्ण को, खान में से हीरा, पन्ना आदि को पृथक किया जा सकता है। अभिक्ष्णज्ञानोपयोग ही वह साधन है, जिसके द्वारा आत्मा की अनुभूति और समुन्नति होती है। उसका विकास किया किया जा सकता है।
आज तक इस ज्ञान की धारा की दुरुपयोग ही किया गया है। ज्ञान का प्रवाह तो नदी के प्रवाह की तरह है। जैसे गंगा नदी के प्रवाह को सुखाया नहीं जा सकता, केवल उस प्रवाह के मार्ग को हम बदल सकते हैं, उसी प्रकार ज्ञान के प्रवाह को सुखाया नहीं जा सकता, केवल उसे स्व-पर हित के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। ज्ञान का दुरुपयोग होना विनाश है और ज्ञान का सदुपयोग करना ही विकास है, सुख है, उन्नति है। ज्ञान के सदुपयोग के लिए जागृति परम आवश्यक है। हमारी हालत उस क की तरह हो रही है, जो पेड़ पर बैठा है पेड़ के नीचे बैठी बिल्ली को देखकर अपना शक्ति को भूल बैठता है और स्वयं घबराकर उस बिल्ली के समक्ष गिर जाता है, तो उसमें दोष कबूतर का ही है। हम ज्ञान की कदर नहीं कर रहे हैं, बल्कि जो ज्ञान द्वारा जाने जाते हैं । उन ज्ञेय पदार्थ की कदर कर रहे हैं। होना इसके विपरीत चाहिए था अर्थात ज्ञान की कदर होनी चाहिए। ” शेयों के संकलन मात्र में यदि हम ज्ञान को लगा दें और उनके समक्ष अपने को हीन मानने लग जाएं तो । यह ज्ञान का दुरुपयोग है। ज्ञान का सदुपयोग तो यह है कि हम अंतर्यात्रा प्रारम्भ कर दें और यह अंतर्यात्रा एक बार नहीं, दो बार * हीं, बार-बार अभीक्ष्ण करने का प्रयास करें। यह अभक्ष्ण ज्ञानोपयोग केवल ज्ञान को प्राप्त कराने वाला है, आत्म-मल को धोने वाला है। जैसे बेला की लालिमा के साथ ही बहुत कुछ ज्ञानोपयोग द्वारा आत्मा के अन्धकार का भी विनष्ट हो जाता है और केवल ज्ञानरूपी सूर्य उदित होता है। अतः ज्ञानोपयोग सतत् चलना चाहिए। ‘उपयोग’ का दूसरा अर्थ है चेतना। अर्थात अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग अपनी खोज यानी चेतना की उपलब्धि का अमोघ साधन है। इसके द्वारा जीव अपनी असली सम्पति को बढ़ाता है, उसे प्राप्त करता है, उसके पास पहुंचता है।
» हमारी हालत उस कबूतर की तरह हो रही है, जो पेड़ पर बैठा है और पेड़ के नीचे बैठी बिल्ली को देखकर अपना होश-हवास खो देता है, अपने पंखों की शक्ति को भूल बैठता है और स्वयं घबराकर उस बिल्ली के समक्ष गिर जाता है, तो उसमें दोष कबूतर का ही है।
ज्ञान का प्रवाह तो नदी के प्रवाह की तरह है। उसे सुखाया नहीं जा सकता, बदला जा सकता है। इसी प्रकार ज्ञान का नाश नहीं किया जा सकता है, उसे स्व-पर कल्याण की दिशा में प्रवाहित किया जा सकता है। यही ज्ञानोपयोग है।
‘अभिक्ष्णज्ञानोपयोग’ शब्द तीन शब्दों से मिल कर बना है, अभिक्षण+ज्ञान+उपयोग अर्थात निरंतर ज्ञान का उपयोग करना ही अभिक्ष्णज्ञानोपयोग है। आत्मा में अनंत गुण हैं और उनके कार्य भी अलग-अलग हैं। ज्ञान गुण इन सभी की पहचान करता है। सुख जो आत्मा का एक गुण है, उसकी अनुभूति भी ज्ञान द्वारा ही संभव है। ज्ञान ही वह गुण है, जिसकी सहायता से पाषाण में से स्वर्ण को, खान में से हीरा, पन्ना आदि को पृथक किया जा सकता है। अभिक्ष्णज्ञानोपयोग ही वह साधन है, जिसके द्वारा आत्मा की अनुभूति और समुन्नति होती है। उसका विकास किया किया जा सकता है।
आज तक इस ज्ञान की धारा की दुरुपयोग ही किया गया है। ज्ञान का प्रवाह तो नदी के प्रवाह की तरह है। जैसे गंगा नदी के प्रवाह को सुखाया नहीं जा सकता, केवल उस प्रवाह के मार्ग को हम बदल सकते हैं, उसी प्रकार ज्ञान के प्रवाह को सुखाया नहीं जा सकता, केवल उसे स्व-पर हित के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। ज्ञान का दुरुपयोग होना विनाश है और ज्ञान का सदुपयोग करना ही विकास है, सुख है, उन्नति है। ज्ञान के सदुपयोग के लिए जागृति परम आवश्यक है। हमारी हालत उस क की तरह हो रही है, जो पेड़ पर बैठा है पेड़ के नीचे बैठी बिल्ली को देखकर अपना शक्ति को भूल बैठता है और स्वयं घबराकर उस बिल्ली के समक्ष गिर जाता है, तो उसमें दोष कबूतर का ही है। हम ज्ञान की कदर नहीं कर रहे हैं, बल्कि जो ज्ञान द्वारा जाने जाते हैं । उन ज्ञेय पदार्थ की कदर कर रहे हैं। होना इसके विपरीत चाहिए था अर्थात ज्ञान की कदर होनी चाहिए। ” शेयों के संकलन मात्र में यदि हम ज्ञान को लगा दें और उनके समक्ष अपने को हीन मानने लग जाएं तो । यह ज्ञान का दुरुपयोग है। ज्ञान का सदुपयोग तो यह है कि हम अंतर्यात्रा प्रारम्भ कर दें और यह अंतर्यात्रा एक बार नहीं, दो बार * हीं, बार-बार अभीक्ष्ण करने का प्रयास करें। यह अभक्ष्ण ज्ञानोपयोग केवल ज्ञान को प्राप्त कराने वाला है, आत्म-मल को धोने वाला है। जैसे बेला की लालिमा के साथ ही बहुत कुछ ज्ञानोपयोग द्वारा आत्मा के अन्धकार का भी विनष्ट हो जाता है और केवल ज्ञानरूपी सूर्य उदित होता है। अतः ज्ञानोपयोग सतत् चलना चाहिए। ‘उपयोग’ का दूसरा अर्थ है चेतना। अर्थात अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग अपनी खोज यानी चेतना की उपलब्धि का अमोघ साधन है। इसके द्वारा जीव अपनी असली सम्पति को बढ़ाता है, उसे प्राप्त करता है, उसके पास पहुंचता है।
» आचार्य विद्यासागर जी

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