झारखंड की जनजातीय बेटी के साथ अन्याय, मुसलमान आरोपी के लिए मुआवज़ा: क्या यही है धर्म पर आधारित “न्याय” की नई परिभाषा ?
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पूनम शर्मा
9 मई को झारखंड के बोकारो ज़िले से एक दिल दहला देने वाली घटना सामने आई जिसने पूरे राज्य को झकझोर कर रख दिया। एक जनजातीय महिला, जब वह एक तालाब के पास स्नान कर रही थी, तभी एक स्थानीय व्यक्ति अब्दुल कलाम ने उस पर कथित तौर पर यौन हमले का प्रयास किया। शोर मचने पर गाँव वालों ने तुरंत हस्तक्षेप किया और आरोपित को पकड़कर पेड़ से बाँध दिया। गुस्साए ग्रामीणों की पिटाई में अब्दुल कलाम की मौत हो गई ।
लेकिन इस घटना के बाद जो कुछ हुआ, उसने जनता की अंतरात्मा को झकझोर दिया है।
जहाँ एक ओर पीड़िता को न्याय देने की बात होनी चाहिए थी, वहीं राज्य सरकार और कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने पूरा ध्यान आरोपित के परिवार को मुआवज़ा देने में लगा दिया। झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) की सरकार और कांग्रेस के बड़े नेताओं ने अब्दुल कलाम के परिजनों को ₹6.5 लाख से अधिक की सहायता राशि और स्वास्थ्य विभाग में सरकारी नौकरी देने की घोषणा कर दी।
इस मुआवज़े में राहुल गांधी द्वारा ₹1 लाख, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन द्वारा ₹1 लाख, सिद्दीकी समुदाय द्वारा ₹51,000 और झामुमो सरकार की ओर से ₹4 लाख शामिल हैं।
Compensating a rapist for being Muslim
On May 9, a case of sexual harassment on a tribal woman by an Islamist identified as Abdul Kalam was reported from Bokaro, Jharkhand.
It was reported that, while the girl was bathing in a nearby pond, Kalam reached there and attempted to… pic.twitter.com/NBsOUKcMaI
— Subhi Vishwakarma (@subhi_karma) May 16, 2025
पीड़िता की अनदेखी, आरोपित को इनाम?
यह प्रश्न बहुत अहम है: उस जनजातीय महिला को क्या मिला? न्याय की एक भी किरण उसके जीवन में पहुँची? या फिर उसकी पीड़ा को इसलिए अनदेखा कर दिया गया क्योंकि आरोपित एक विशेष समुदाय से ताल्लुक रखता है?
इस मामले में सत्ता पक्ष का रुख यह दर्शाता है कि अपराध की गंभीरता से अधिक अहमियत अब आरोपित की पहचान को दी जा रही है। यदि आप एक “चुनिंदा समुदाय” से आते हैं, तो आपके लिए मुआवज़ा और सहानुभूति की बारिश सुनिश्चित है, भले ही आप पर गंभीर आरोप क्यों न हों।
कांग्रेस की ‘चुनिंदा सहानुभूति’ की राजनीति
यह घटना कोई अकेली मिसाल नहीं है। यह कांग्रेस द्वारा वर्षों से चलाए जा रहे तुष्टिकरण की राजनीति की एक और कड़ी है। शाह बानो केस से लेकर वर्तमान तक, कांग्रेस बार-बार यह दिखा चुकी है कि उसकी “धर्मनिरपेक्षता” केवल एक विशेष समुदाय तक सीमित है।
राहुल गांधी ने बिना किसी जाँच के, बिना पीड़िता के लिए एक शब्द बोले, अब्दुल कलाम के परिवार को ₹1 लाख की राशि देकर एक स्पष्ट संदेश दिया है — “भारत जोड़ो यात्रा” के नाम पर वे किस तरह का भारत जोड़ना चाहते हैं?
क्या यही ‘भारत जोड़ो’ है, जहाँ पीड़िता की जाति और आरोपी का मज़हब देखकर न्याय तय किया जाता है?
झारखंड में झामुमो की खतरनाक नीति
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का यह निर्णय – कि एक कथित अपराधी के परिवार को आर्थिक सहायता और सरकारी नौकरी दी जाए – न सिर्फ वोट बैंक की राजनीति को उजागर करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि राज्य की प्राथमिकता जनजातीय महिलाओं की सुरक्षा नहीं, बल्कि राजनीतिक समीकरण साधना है।
झारखंड जैसे राज्य में, जहाँ जनजातीय समुदाय पहले से ही उपेक्षा का शिकार हैं, वहां एक जनजातीय महिला की गरिमा को सत्ता ने क्यों ताक पर रख दिया? क्या उसकी अस्मिता की कोई कीमत नहीं?
यदि गांव वालों ने गुस्से में प्रतिक्रिया दी, तो वह राज्य की सुरक्षा विफलता का नतीजा थी। लेकिन अब राज्य उसी समुदाय को अपराधी बताकर, आरोपित के लिए सहानुभूति जताकर एक खतरनाक सामाजिक संदेश दे रहा है।
न्याय की बुनियाद हिलती नजर आ रही है
इस तरह के फैसले, जहां एक यौन अपराध के आरोपित को मुआवज़ा और नौकरी दी जाती है, समाज में यह संकेत भेजते हैं कि अपराध के खिलाफ खड़ा होना खतरे से खाली नहीं, और कुछ पहचान विशेष अपराधियों को ‘छूट’ दिलवा सकती है।
तो क्या अब अपराध की सजा नहीं बल्कि पहचान तय करेगी कि किसे मुआवज़ा मिलेगा?
पीड़िता के लिए कोई कदम क्यों नहीं?
इस पूरी घटना में सबसे दुखद पहलू यह है कि पीड़िता की कोई चर्चा नहीं है। न कोई आर्थिक सहायता, न कोई परामर्श, न कोई सुरक्षा और न ही कोई संवेदना। क्या इसलिए कि उसकी पीड़ा एक राजनीतिक नैरेटिव में फिट नहीं बैठती?
कांग्रेस और तथाकथित “धर्मनिरपेक्ष” नेताओं ने एक बार फिर पीड़ित महिला को भुला दिया, और आरोपित की पहचान को केंद्र में रखकर सारी राजनीति रची।
नैतिकता का पतन
यह सिर्फ एक महिला के साथ अन्याय नहीं है, यह न्याय, सत्य और लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ विश्वासघात है। यदि राहुल गांधी और हेमंत सोरेन वाकई न्याय में विश्वास रखते हैं, तो उन्हें पीड़िता के लिए भी उतनी ही सहायता और सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए जितनी अब्दुल कलाम के परिवार को दी गई है।
अन्यथा, जनता इसे करुणा नहीं, बल्कि तुष्टिकरण के नाम पर धोखा मानेगी।
यह घटना हमें याद दिलाती है कि न्याय तब तक अधूरा है जब तक उसमें समानता और संवेदनशीलता न हो—चाहे पीड़ित का नाम कोई भी हो।
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