पूज्य सद्गुरुदेव अवधेशानंद जी महाराज आशिषवचनम्

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
           ।। श्री: कृपा ।।
🌿 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – अध्यात्म लौकिक-पारलौकिक प्रलोभनों से मुक्ति का बल प्रदान करता है जो मानव मन की उन समस्त दुर्बलताओं को उद्दीप्त करते हैं, जहां मानव मन में निरंतर प्रत्येक से ऊपर उठकर प्रमुख बनने की लालसा सत्ताधिकार एवं निरंतर प्रभावशील रहने की अहंगत कामना विद्यमान रहती है। यथार्थ जागरण है – अध्यात्म ..! अध्यात्म वो प्रकाश पुंज है जो हमें अनन्त आनंद की अनुभूति करा सकता है। आत्मसम्मान-आत्मसन्तुष्टि प्राप्ति की एकमात्र दिशा है – अध्यात्म। और, अध्यात्म का अर्थ है – यथार्थ बोध एवं परमार्थ के लिए प्रचण्ड पुरुषार्थ। अध्यात्म एक जीवनदृष्टि है, एक विचारशैली है। हमारे अंदर निहित गुणों की संरचना ही हमारा व्यक्तित्व है। व्यक्तित्व को बदलना व परिष्कृत; परिमार्जित करना ही अध्यात्म है। आत्म-संतुष्टि निर्भयता और आनंद की जननी है। जीवन में निर्भयता आनी चाहिए। भय पाप है, निर्भयता जीवन है। जीवन में अगर निर्भयता आ जाय तो दुःख, दर्द, शोक, चिन्ताएँ दूर हो जाती हैं। भय अज्ञानमूलक है, अविद्यामूलक है और निर्भयता ब्रह्मविद्यामूलक है। जो पापी होता है, अति परिग्रही होता है वह भयभीत रहता है। जो निष्पाप है, परिग्रह रहित है अथवा जिसके जीवन में सत्त्वगुण की प्रधानता है वह निर्भय रहता है। पूज्य “आचार्यश्री” जी कहा करते हैं कि निर्भयता सत्य के बिना नहीं आ सकती। जीवन में अहिंसा करुणा से, त्याग प्रेम से व अभयता सत्य से आती है। आत्मबल बढ़ाने का एक ही तरीका है कि हम सकारात्मक चिंतन करें। आत्म संतुष्टि के लिए सेवा एवं परमार्थ आवश्यक है। दूसरों के सुख, सफलता और विकास में अपना सुख देखें, ऐसा भाव मन में पैदा हो कि दूसरों की खुशियां आपको सुख देने लगें, तब आपका दु:ख स्वत: मिट जाएगा। सेवा भाव से किए गए कार्य का फल जब दूसरों की खुशी के रूप में आता है तो अपना मन आंतरिक रूप से प्रफुल्लित हो जाता है। इसलिए परहितार्थ किया गया कार्य आत्मसंतुष्टि और निर्विकार आनंद देता है। देह की वासना, मन की तृष्णा और अहं की क्षुद्रता को पैरों तले रौंदते हुए जब हम अंतरात्मा के पक्ष में निर्णय लेते हैं, तो हमारा आत्म-सम्मान हमारे व्यक्तित्व को आत्म-गौरव की एक नई चमक देता है …।
🌿 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु अहंकार है जो मनुष्य को गर्त में ले जाता है। अहंकार की रुचि दिखाने में होती है। अहंकार विनय को समाप्त कर देता है।अहंकार के बीज को अपने हृदय में पनपने का अवसर ना दें। कामना और अहंकार के त्याग से खुलता है – मुक्ति का मार्ग। दया, करुणा, सहानुभूति का भाव उदित होते ही अहंकार गलने लगता है। विश्वास में कमी होने से ही भक्ति में कठिनता आती है। भगवान ने हमें कर्म करने की सामर्थ्य दी है, अकर्तव्य का त्याग करने के लिए विवेक दिया है और विश्वास-शक्ति दी है। यदि हम पूर्ण रूप से स्वयं को ईश्वर में साधने का सतत् प्रयास करें तो ईश्वर अनुभूति अवश्य हो जाती है। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने पवित्र ग्रंथ गीता पर विस्तृत प्रकाश डालते हुए कहा कि आज प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है और सुख प्राप्त करने के बाद भी आत्मसंतुष्टि नहीं होती। आज मनुष्य की कामना सुख प्राप्त करने की ही नहीं, जीवन जीने की भी है और शास्त्र भी इसका उल्लेख करते हैं। शास्त्रों में यह भी निहित है कि मनुष्य जीवन चाहता है, सुख चाहता है और इन दोनों के साथ-साथ सम्मान भी पाना चाहता है। मनुष्य को आज स्वयं का भी ज्ञान नहीं है। शास्त्रों में कहा गया है कि जिस दिन मनुष्य को अपना ज्ञान हो जाएगा तो उसका जीवन भी सफल हो जाएगा। गीता शास्त्र का स्वरुप है और अध्यात्म की तरफ ले जाने का एक मार्ग है। यह यथार्थ का बोध करवाता है और सत्य का ग्रंथ है। अध्यात्म का पहला सुख वर्तमान है तथा वर्तमान जीवन का मूल है।वर्तमान को पूरे उत्साह, उमंग, उल्लास के साथ जीने की जरूरत है। वर्तमान ही जीवन है। इससे बढ़कर कुछ भी नहीं।जीवन जीने की कला, जीवन के यथार्थ और जीवन में अध्यात्म के महत्व पर प्रकाश डालते हुए जीवन से जुड़े तरह-तरह के प्रश्नों का उत्तर देते हुए पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा कि सारांश; सार; निचोड़; संक्षेप, भावार्थ ये है कि वर्तमान ही जीवन है। इसे ही ठीक से जीने की आवश्यकता है। जिंदगी को सफल, सुखद और मंगलमयी बनाने के लिए आध्यात्मिक होना जरूरी है। अज्ञानता के कारण उत्पन्न होने वाले अनेक द्वंद्व मनुष्य को व्यथित करते हैं। अनेक बार किसी संशय के कारण व्याकुलता दिखती है। ये सब हमारे अंतःकरण को अमान्य है, फिर भी वह हमारे अंतःकरण में रहते हैं। उसका मूल है – अविवेक, अज्ञान। इन सबसे मुक्ति के लिए अधिकारी बनना पड़ता है। हम सबको आदर्श के अनुकूल रहना चाहिए। वर्जनाएं टूटनी नहीं चाहिए। जो निषेध है, उससे निश्चित रूप से वंचित रहना चाहिए। फिर वर्जनाओं के बारे में कौन बताएगा? यह ज्ञान कहां से आएगा? तो, इसके लिए एक ही साधन है – आध्यात्मिक विचार …।
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