योग नकारात्मक विचारों को सकारात्मक विचार में बदलता है: स्वामी अवधेशानन्दं जी महाराज

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
            ।। श्री: कृपा ।।
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 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के शुभ अवसर पर देशवासियों को हार्दिक बधाई देते हुए कहा – अथ योगानुशासनम् ‘ जीवन की परिपूर्णता-सिद्धि, समाधान व मनुष्य में अंतर्निहित दिव्य आध्यात्मिक शक्तियों के जागरण की वैज्ञानिक विधा है – योग ! योग-विद्या के प्रसार, योगाभ्यास और योगमय दिव्य आचरण द्वारा वैश्विक शान्ति-समाधान में अपना योगदान सुनिश्चित करें। योग आनंद का ऐसा स्रोत है जो मानव कल्याण के लिए अत्यंत आवश्यक है। योग से आनंद और सुख की प्राप्ति होती है और योगी का आचार-विचार परिष्कृत हो जाता है। अतुल्य-सामर्थ्य, अखण्ड-आनन्द, अपूर्व-ऐश्वर्य और अनन्त शक्ति प्रदाता है – योग। इहलोक-परलोक की सकल अनुकूलताओं और जीवन-सिद्धि समाधान का सहज स्रोत है – योग। अतः योग साधन में अभ्यास और वैराग्य का अविच्छिन्न सातत्य रहे।
आज पूरा विश्व योग दिवस मना रहा है। भारत ने विश्व को योग और अध्यात्म दिया है। विश्व ने योग की महत्ता को समझा और इसे अपनाया। वैदिक काल से ही हमारे ऋषि-मुनियों ने योग को गुरुकुल के माध्यम से लोगों तक पहुँचाया। योग एक साधना है जो मनुष्य को बौद्धिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ रखता है। योग से गंभीर से गंभीर व्याधियों से मुक्ति मिल सकती है, इसलिए नियमित रूप से योग करें। योग को अपनी जीवनशैली का अंग बनाकर न केवल आरोग्यता अपितु इहलोक व परलोक की समस्त अनुकूलताएँ प्राप्त की जा सकती हैं। शरीर और आत्मा का मिलन कराता है – योग। वास्तव में लोग इसे सिर्फ एक एक्सरसाइज मानते हैं, लेकिन यह पूरा एक दर्शनशास्त्र है जो आपको आपसे मिलाता है। योग भारतीय संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विद्या है। योग से हमारा सर्वांगीण, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और व्यवहारिक विकास होता है। योग जीवन जीने की कला है, जिसे सीखकर व्यक्ति स्वस्थ रहता है और जीवन में सफल होता है। तब हमारा जीवन दिव्य बनाता है और हम अपने भाग्य बदलने में सक्षम होते हैं। योग से चरित्र में सुधार, चेहरे पर तेज़, वाणी में मधुरता, कार्य में कुशलता, रोगों से मुक्ति, तनाव रहित और प्रसन्नता पूर्ण जीवन जीया जा सकता है। योग के द्वारा पारिवारिक जीवन में मधुर तालमेल किया जा सकता है। बुरी आदतों को योग के द्वारा छोड़ा जा सकता है। योग नकारात्मक विचारों को सकारात्मक विचार में बदलता है जिससे हम निराशा, हताशा, अवसाद और कुंठा से बच सकें और आशा और उत्साहपूर्वक जीवन जी सकें …।

पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – योग मानसिक, आध्यात्मिक और शारीरिक पथ के माध्यम से जीवन जीने की कला है। यह स्थिरता प्राप्त करने और आंतरिक आत्म की चेतना में ध्यान लगाने में सहायता करता है। मन, भावनाओं और शारीरिक आवश्यकताओं के बारे में ज्यादा ना सोचने और दिन-प्रतिदिन जीवन की चुनौतियों का सामना कैसे करें यह भी सीखने में मदद करता है। योग शरीर, मन और ऊर्जा के स्तर पर काम करता है। योग का नियमित अभ्यास शरीर में सकारात्मक बदलाव लाता है।योग का अर्थ है – अपने आत्म स्वरुप में आना। इस योग साधना के लिए मन का संयम में होना अति आवश्यक है। योग के अनेक उपाय केवल मन को संयम में लाने के लिए ही बनाये गए हैं। मन को नियंत्रण में किये बिना योग की अवस्था प्राप्त नहीं किया जा सकता। भले कितने भी साधन कर लें, बिना मन को साधे योग साधना अधूरी ही है। इसलिए योग के लिए मन को काबू करना व जीवन को संयमित बनाना आवश्यक है।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा कि वास्तव में सर्वोच्च लक्ष्य के साथ संबंध जोड़ लेना ही योग है। ब्रह्म स्वभाव से सम है। अत: समत्व में स्थित होकर कर्म करने का अर्थ है – प्रभुभाव से कर्म करना। यही कर्म में कुशलता का मर्मार्थ है। गीता कहती है कि गुलाम की तरह कर्म न करो, भगवान की तरह कर्म करो। कर्म में ही तेरा अधिकार है, फल तो भगवान के हाथ में है। फल के लालच में गुलाम मत बनो। ध्यान रहे कि न तो तेरा अधिकार शरीर पर है और न ही मन-बुद्धि पर। खाना तेरे अधिकार में है, पचाना तेरे वश में नहीं है। न चाहते हुए भी तुम बीमार पड़ते हो, विक्षिप्त हो जाते हो और गलत निर्णय लेते रहते हो। फल नहीं मिलेगा तो कर्म नहीं करेंगे, यह तमोगुण है। कर्म करेंगे तो फल लेंगे ही, यह रजोगुण है। कर्म करते हुए फल भगवान को अर्पित कर देंगे, यह सतोगुण है। फल की प्राप्ति के बाद भी लोक-कल्याण के लिए कर्म करते रहना भगवदिच्छा है जो त्रिगुणातीत है। सुख-दु:ख दोनों स्थितियों में सम रहने वाले योगी को न सुख स्पर्श करता है और न ही दु:ख। शरीर है तो दु:ख की वृत्तियां रहेंगी ही। दु:ख आगे है, पीछे है, ऊपर है और नीचे है। दु:ख से संयोग तो होता है, किंतु भवसागर में कमलपत्रवत रहने वाले योगी को वे छू नहीं पाती हैं। यह दु:ख का वियोग न होकर दु:ख के संयोग का वियोग है, यही गीता में योग का मर्मार्थ है …।
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 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – योग का अर्थ शरीर, मन और आत्मा को साथ लाना होता है। जब ये तीनों एक साथ होते हैं, तब वो योग कहलाता है। भारत एक ऐसा देश है जहाँ हर तरह के योग को अध्यात्म से जोड़ा जाता है, चाहे वो शारीरिक योगासन हों या फिर मन और आत्मा को साथ में लाने के लिए ध्यान योग हो। योग हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा दिया गया एक अनमोल उपहार है। यह एक प्राचीन चिकित्सीय पद्धति है, जो आपके सम्पूर्ण शरीर को स्वस्थ बनाने में सहायक है। योग के अभ्यास से व्यक्ति का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य सुधरता है, बशर्ते इसे सही तरीके से किया जाये। योग का अभ्यास आपको अध्यात्म से भी जोड़ता है। योग के अंतर्गत कई चीज़े हैं, जैसे – भक्ति, कर्म, ध्यान आदि। यह आपको ऊर्जा प्रदान करने वाला आनंदमय उपहार है।
योग की विशेषता यह है कि इसे करने के लिए आपको किसी भी साधन की आवश्यकता नहीं होती है। इसलिए इसे हर व्यक्ति कर सकता है, चाहे वो गरीब हो या अमीर। साथ ही इसे हर उम्र का व्यक्ति कर सकता है। बच्चे हो या बूढ़े, हर कोई योग को करके इसके लाभों से लाभान्वित हो सकता है। योग शब्द का अर्थ है – जुडना। यदि इस शब्द को आध्यात्मिक अर्थ में लेते हैं तो इस का तात्पर्य आत्मा का परमात्मा से मिलन और दोनों का एकाग्र हो जाना है। भक्त का भगवान से, मानव का ईश्वर से, व्यष्टि का समष्टि से, पिण्डका ब्रह्माण्ड से मिलन को ही योग कहा गया है, वास्तव में देखा जाए तो यौगिक क्रियाओं का उद्देश्य मन को पूर्णरुप से प्रभु के चरणों में समर्पित कर देना है।
ईश्वर अपने आप में अविनाशी और परम शक्तिशाली है। जब मानव उस के चरणों मे एकलय हो जाता है तो उसे असीम सिद्धि दाता से कुछ अंश प्राप्त हो जाता है, उसी को योग कहते हैं। पूज्य “आचार्यश्री” जी के अनुसार इस भौतिकवादी, क्लेशमय जीवन में योग की सबसे अधिक आवश्कता है। थोड़ा-सा नियमित आसन और प्राणायाम हमें निरोगी तथा स्वस्थ रख सकता है। यम-नियमों के पालन से हमारा जीवन अनुशासन से प्रेरित हो। धारणा एवं ध्यान के अभ्यास से वह न केवल तनावरहित होगा, वरन कार्य-कुशलता में पारंगत भी हो पायेगा। इसलिए जीवन में पूर्णता का अनुभव है – योग। अतः योग से जुड़कर हम अपने उत्थान के साथ-साथ समाज तथा राष्ट्र के उत्थान में भी सहभागी बनें ..!

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