हर कार्य के मूल में एक बीज होता है और वह है – विचार : स्वामी अवधेशानंद जी महाराज

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
           ।। श्री: कृपा ।।
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 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – विचार औषधि है। स्वस्थ्य और सकारात्मक विचारों से साधक में चरित्र की उच्चता, चिंतन की शुद्धता एवं आचरण की पारदर्शिता आती है और जीवन सिद्धि-श्रेष्ठता का मार्ग प्रशस्त होता है। अतः जीवन में विचार सम्पन्नता रहे ..! हम कुछ और नहीं अपने द्वारा बोई हुई फसल का उत्पादन है। जैसा विचार बीज मस्तिष्क रूपी भूमि में बोया जायेगा वैसा ही जीवन बनेगा। जिस प्रकार वृक्ष के उगने के लिए बीज अनिवार्य है उसी प्रकार हर कार्य के मूल में भी एक बीज होता है और वह है – विचार। जैसा बीज वैसा पौधा तथा जैसा विचार वैसा कर्म। विचार बीज की तरह से है। उपर्युक्त विभिन्न बीजों का हर एक का अलग गुण और अलग धर्म होता है l हर बीज अपना गुणधर्म लेकर पनपता है। बीज जिस जाति का होता है उस जाति का फल देना उसका स्वभाव होता है। मनुष्य हर कर्म किसी न किसी विचार के वशीभूत ही करता है, अत: विचारों का बड़ा महत्त्व है। विचार ही हमारे जीवन की दशा और दिशा निर्धारित करते हैं। विचारों का उद्गम स्थल है – हमारा मन। अत: मन पर नियंत्रण द्वारा हम ग़लत विचारों पर रोक लगा सकते हैं तथा अच्छे विचारों से मन को आप्लावित कर सकते हैं। यदि जीवन रूपी बगिया को सुंदर बनाना है, उसे रंगों से सराबोर करना है तथा उसे भीनी-भीनी सुगंध से महकना है तो मन रूपी बगिया में चुन-चुन कर अच्छे विचार बीजों को बोइए और सकारात्मक सोच के पौधे लगाइए। सफल जीवन जीने की आकाँक्षा आदि साकार करनी हो तो पहला कदम आत्म-निरीक्षण में उठाया जाना चाहिए। अपने विचारों-मान्यताओं-आस्थाओं और अभिमान की समीक्षा करनी चाहिए और उनमें जितने भी अवाँछनीय तत्व हों उन्हें उन्मूलन करने के लिए जुट जाना चाहिए। और यह तभी संभव है, जब उनकी स्थान पूर्ति के लिए सद्विचारों के आरोपण की व्यवस्था बना ली जाय। विचार-परिवर्तन के आधार हैं – संयम, सेवा, स्वाध्याय, सत्संग, साधना और स्वात्मोत्थान। अतः जब इन्हें अपनाया जायेगा तो जीवन का स्वरूप बदलेगा और अवसाद उत्कर्ष में परिणत होगा …।
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 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – हमारे पास दो तरह के बीज होते हैं – सकारात्मक विचार एवं नकारात्मक विचार। जो आगे चलकर हमारे दृष्टिकोण एवं व्यवहार रुपी पेड़ का निर्धारण करता है। हम जैसा सोचते हैं वैसा बन जाते हैं। यह हम पर निर्भर करता है कि हम अपने दिमाग रुपी जमीन में कौन सा बीज बोते हैं? थोड़ी सी चेतना एवं सावधानी से हम कांटेदार पेड़ को महकते फूलों के पेड़ में बदल सकते हैं। जिस तरह काले रंग का चश्मा पहनने पर हमें सब कुछ काला और लाल रंग का चश्मा पहनने पर हमें सब कुछ लाल ही दिखाई देता है, उसी प्रकार नकारात्मक सोच से हमें अपने चारों ओर निराशा, दुःख और असंतोष ही दिखाई देगा और सकारात्मक सोच से हमें आशा, खुशियाँ एवं संतोष ही नजर आएगा। यह हम पर निर्भर करता है कि सकारात्मक चश्मे से इस दुनिया को देखते हैं या नकारात्मक चश्मे से। अगर हमने पॉजिटिव चश्मा पहना है तो हमें हर व्यक्ति अच्छा लगेगा और हम प्रत्येक व्यक्ति में कोई न कोई खूबी ढूँढ ही लेंगे। लेकिन, अगर हमने नकारात्मक चश्मा पहना है तो हम बुराइयाँ खोजने वाले कीड़े बन जाएंगे। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – कुछ लोग केवल भौतिक सुख और आर्थिक समृद्धि चाहते हैं। उनको यह सब मिलता भी है, लेकिन वास्तविक सुख और संतुष्टि नहीं मिलती। यदि जीवन में संतोष की कामना करोगे तो संतोष भी मिलेगा और संतुष्टि के सामने मात्र भौतिक सुख और समृद्धि कोई मायने नहीं रखते। अत: मन को संतुलित सकारात्मक विचारों से ओत प्रोत रखना ही श्रेयस्कर है और यही अभीष्ट भी …।
🌿 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – सकारात्मकता की शुरुआत आशा और विश्वास से होती है। किसी जगह पर चारों ओर अँधेरा है और कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा और वहां पर अगर हम एक छोटा सा दीपक जला देंगे तो उस दीपक में इतनी शक्ति है कि वह छोटा सा दीपक चारों ओर फैले अँधेरे को एक पल में दूर कर देगा। इसी तरह आशा की एक किरण सारे नकारात्मक विचारों को एक पल में मिटा सकती है। नकारात्मकता को नकारात्मकता समाप्त नहीं कर सकती, नकारात्मकता को तो केवल सकारात्मकता ही समाप्त कर सकती है। इसीलिए जब भी कोई छोटा सा नकारात्मक विचार मन में आये उसे उसी पल सकारात्मक विचार में बदल देना चाहिए। उदाहरण के लिए अगर किसी विद्यार्थी को परीक्षा से 20 दिन पहले अचानक ही यह विचार आता है कि वह इस बार परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो पाएगा तो उसके पास दो विकल्प हैं। या तो वह इस विचार को बार-बार दोहराए और धीरे-धीरे नकारात्मक पौधे को एक पेड़ बना दे या फिर उसी पल इस नेगेटिव विचार को पॉजिटिव विचार में बदल दे और सोचे कि कोई बात नहीं अभी भी परीक्षा में 20 दिन यानि 480 घंटे बाकि है और उसमें से वह 240 घंटे पूरे दृढ़ विश्वास के साथ मेहनत करेगा तो उसे उत्तीर्ण होने से कोई रोक नहीं सकता। अगर वह नेगेटिव विचार को सकारात्मक विचार में उसी पल बदल दे और अपने पॉजिटिव संकल्प को याद रखे तो निश्चित ही वह उत्तीर्ण होगा। प्राय: कहा जाता है कि पुरुषार्थ से ही कार्य सिद्ध होते हैं, मन की इच्छा से नहीं। बिलकुल ठीक बात है, लेकिन मनुष्य पुरुषार्थ कब करता है और किसे कहते हैं – पुरुषार्थ? पहली बात तो यह है कि मन की इच्छा के बिना पुरुषार्थ भी असंभव है। मनुष्य में पुरुषार्थ या हिम्मत अथवा प्रयास करने की इच्छा भी किसी न किसी भाव से ही उत्पन्न होती है और सभी भाव मन द्वारा उत्पन्न तथा संचालित होते हैं। अत: मन की उचित दशा अथवा सकारात्मक विचार ही पुरुषार्थ को संभव बनाता है। पुरुषार्थ के लिए उत्प्रेरक तत्व मन ही है। कई व्यक्ति तथाकथित पुरुषार्थ तो करते हैं, लेकिन फिर भी सफलता से कोसों दूर रहते हैं। एक श्रमिक कितना परिश्रम करता है लेकिन क्या उसका परिश्रम या पुरुषार्थ अपेक्षित कार्य-सिद्धि प्रदान कर पाता है? कार्य-सिद्धि अथवा सफलता या लक्ष्य-प्राप्ति पूर्ण रूप से पुरुषार्थ पर नहीं, मन की इच्छा पर निर्भर है। मन को किसी सकारात्मक उपयोगी विचार से ओतप्रोत कर लें तो उससे असीमित लाभ संभव है। जैसा विचार वैसा लाभ। सुख-दु:ख की अनुभूतियाँ मन में उत्पन्न विचार की ही देन हैं। इसलिए स्वास्थ्य विषयक सकारात्मक विचार स्वास्थ्य तथा आरोग्य प्रदान करेंगे तथा समृद्धि के प्रति विश्वास से ओत-प्रोत विचार समृद्धि देंगे …।

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