अलभ्य को लभ्य कर दे, वही गुरु है : स्वामी अवधेशानन्दं जी महाराज

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
            ।। श्री: कृपा ।।
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  पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – जिस तरह सूरज की किरणें सभी को रोशनी और गर्माहट देती हैं, उसी तरह एक आत्मवान आध्यात्मिक गुरु अपनी कृपा और करुणा सभी पर दिखाता है। अध्यात्म परंपरा में गुरु कृपा की महिमा सर्वोच्च कही गई है। कहते हैं कि गुरु की कृपा के बिन इस मार्ग की न तो समझ उघड़ती है, न ही रूचि प्रकटती है और न ही अनुभूति प्रज्जवलित होती है। गुरु यानि जो हमारे अज्ञान रुपी अंधकार को दूर करते हैं। संसार के इस विषम चक्र में यदि आपको कहीं कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो आपके निज-स्वरुप के प्रति रहे हुए अज्ञान को दूर करने में प्रयासरत हो तो वह आपके लिए ‘गुरु’ ही है।
गुरु के मार्गदर्शन से शिष्य का अज्ञान दूर होता है। गुरु किसी व्यक्ति को नहीं कहते, परंतु गुरु एक उपस्थिति का नाम है; गुरु की उपस्थिति में जगत पर रहा माया का पर्दा उठता है तो इस क्षण को ‘गुरु-कृपा’ कहते हैं। यह गुरु-कृपा किसी गुरु का व्यक्तिगत चुनाव नहीं है कि किसी साधक पर कृपा करे और किसी पर न करे। यह गुरु-कृपा तो गुरु की उपस्थिति में उनके अस्तित्व से बहती रहमत है जो यदि आपकी पात्रता है तो उसमें भर दी जाती है। जैसे घर में बिजली की तारों में करंट तो एक समान दौड़ता है, परंतु बल्ब की जितनी क्षमता होगी उतनी ही रोशनी देने में वह सक्षम होता है। उसी प्रकार श्रीगुरु की उपस्थिति में आप भी उतना ही माया का पर्दा उठा सकते हैं जितनी आपकी आंतरिक योग्यता होगी, इसी को ‘गुरु-कृपा’ कहते हैं …।
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 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मनुष्य की आध्यात्मिक माँग की पूर्ति है – सद्गुरू; जो बोधगम्यता का मूलभूत स्रोत है। गुरु का अर्थ है – जो बोध दे, समाधान दे और द्वंद से मुक्ति में सहायक बने, जो दुर्बोध को सुबोध कर दे, वही गुरु है। ज्ञान गुरु है। उपदेश गुरु है। जो कठिन को सरल बना दे, दूर को पास कर दे, अलभ्य को लभ्य कर दे, वही गुरु है। शब्द गुरु है। काया और माया से जो हमें मुक्त करा दे, इस विनाशी शरीर से जो हमें अविनाशी का बोध करा दे और बिंदु से जो हमें सिंधु बना दे उस तत्व को गुरुतत्व कहते हैं। गुरु केवल शरीर नहीं है? गुरु माने परंपरा, गुरु माने व्यास, गुरु माने जहाँ से ज्ञान आता हो, जहाँ से विचार आते हों, जहाँ से समाधान आता हो, जहाँ से चुनौतियों को जीतने के लिए बल मिलता हो, उस सत्ता को गुरुसत्ता कहते हैं।
गुरु का आदर किसी व्यक्ति का आदर नहीं, अपितु गुरु की देह में जो विदेही आत्मा परब्रह्म परमात्मा बैठा है, उसका आदर है, उसका पूजन है। ज्ञान का आदर है, विद्या का पूजन है, परब्रह्म का पूजन है। गुरु और शिष्य का संबंध एक बंधन है, जिसमें बंध कर शिष्य जन्म-जन्मान्तर के बंधनों से मुक्त हो जाता है। जिसमें गुरु दे-दे कर भर जाता है और शिष्य मिट-मिट कर बन जाता है। इस प्रकार सीखता तो शिष्य है, लेकिन परीक्षा गुरु की होती है। अतः शिष्य से हारने पर भी जीत गुरु की ही होती है …।
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पूज्य आचार्यश्री जी ने कहा – गुरु-कृपा यानि अज्ञात को पाने की तैयारी और तत्परता से भरे हृदय में अज्ञात का समा जाना ! गुरु-कृपा यानि संसार की तरफ भागते चित्त को स्वयं के स्वरुप के प्रति के होश से भर देना, सघन कर देना ! गुरु-कृपा यानि शिष्य के प्रेम-श्रद्धा-अर्पणता की ऐसी भूमिका जहाँ माया का पर्दा उठ जाए और अज्ञान की परतें गिर जाए ! गुरु के महत्व पर गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में लिखा है – भले ही कोई ब्रह्मा अथवा भगवान शंकर के समान ही क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता। धरती के आरंभ से ही गुरु की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला गया है।
वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, गीता, गुरुग्रन्थ साहिब आदि सभी धर्मग्रन्थों एवं सभी महान संतों द्वारा गुरु की महिमा का गुणगान किया गया है। गुरु और भगवान में कोई अन्तर नहीं है। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, ठीक वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है। सद्गुरू – अर्थात् जिनके दर्शन और सान्निध्य मात्र से हमें भूले हुए शिवस्वरूप परमात्मा की स्मृति हो जाये, जिनकी आँखों में हमें करूणा, प्रेम एवं निश्चिंतता छलकती दिखे, जिनकी वाणी हमारे हृदय में उतर जाये, जिनकी उपस्थिति में हमारा जीवत्व मिटने लगे और हमारे भीतर सोई हुई विराट संभावना जग उठे, जिनकी शरण में जाकर हम अपना अहम् मिटाने को तैयार हो जायें, ऐसे सद्गुरू हममें हिम्मत और साहस भर देते हैं, आत्म-विश्वास जगा देते हैं और फिर मार्ग बताते हैं, जिससे हम उस मार्ग पर चलने में सफल हो जायें, अंतर्मुख होकर अनन्त की यात्रा करने चल पड़ें और शाश्वत शांति के, परम निर्भयता एवं परमानन्द के अधिकारी बन जायें …।

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