पूज्य सद्गुरुदेव अवधेशानंद जी महाराज आशिषवचनम्

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
            ।। श्री: कृपा ।।???? पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – सेवा परमो धर्म ही हमारी संस्कृति है; सेवा साधना नही है यह साधना का फल है…! सेवा किये बिना कोई साधना सफल नहीं हो सकती। सेवा मानव-जीवन को उत्कृष्ट और पूर्ण बनाने की एक महत्वपूर्ण साधना है। जो फल अनेक तरह की तपश्चर्याओं, साधनाओं, कर्मकाण्ड, उपासनाओं से प्राप्त होता है, वह मनुष्य को सेवा के द्वारा सहज ही मिल जाता है। सेवा का महत्व अपने आप में बहुत बड़ा है। शास्त्रों में सेवा गुण को सर्वोत्तम गुण कहा गया है। जिस व्यक्ति के पास सेवा गुण है उसे सहजता से आवश्यकता अनुसार वस्तुएं प्राप्त हो जाती हैं! सेवा सभी को करनी चाहिए। चाहे घर-परिवार की सेवा हो या समाज, देश अथवा राष्ट्र की सेवा हो। सेवा ईश्वर को रुझाने का अचूक उपाय है। सेवा से ईश्वर भी प्रसन्न होते है। सेवा से ही ब्रह्मविद्या की प्राप्ति होती है और ब्रह्मविद्या से चारो फल (काम, अर्थ, धर्म और मोक्ष ) की प्राप्ति होती है, जिससे मानव जीवन सुखमय होते हुए परम धाम को प्राप्त होता है…।
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – शरणागत भाव से की गई सेवा और सुमिरन परमात्मा प्राप्ति के सर्वोपरि साधन हैं। सेवा में अहं भाव का नाश हो जाता है, जो परमात्मा प्राप्ति में सबसे बड़ा बाधक है। सेवा साधना का एक उत्कृष्ट फल है। भक्ति की तल्लीनता का एक अंग है – सेवा। इसकी उपलब्धि ही सर्वस्व है। ‘सेवा’ एक छोटा-सा शब्द है, लेकिन गुरुओं की शिक्षा पर अमल करने वाले श्रद्धालु के लिए, चाहे वह किसी भी धर्म, अथवा समुदाय से सम्बन्ध रखता हो, इसके अर्थ बहुत बड़े हैं। गुरु घर की सेवा यानी विनम्रता का वरण, गुरु का अंग-संग, कृपा और अनुकंपा पाने की सीढ़ी है। सिख धर्म तो जाना ही सेवा से जाता है। सिख धर्म में सेवा एक जीवन-पद्धति या व्यवहारिकता है। आत्म विकास के लिए, सामाजिक उत्तरदायित्व एवं मानवीय कर्तव्य के नाते हमें जन-सेवा को जीवन का महत्वपूर्ण नियम बना लेना चाहिए। नित्य किसी न किसी रूप में कम से कम किसी पीड़ित की सेवा का व्रत तो हम अत्यन्त व्यस्त हो कर भी निभा ही सकते हैं। गौतम बुद्ध ने यही कहा है – “जिसे मेरी सेवा करनी है वह पीड़ितों की सेवा करे….।”
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – सेवा ही मनुष्य का सर्वोपरि धर्म है। सेवा से मनुष्य का तन, मन, धन सब कुछ पवित्र हो जाता है। सेवा से संत-सत्पुरुषों का सान्निध्य प्राप्त होता है। सेवा से ज्ञान प्राप्त होता है। दूसरों से सेवा लेने से हमारे पुण्य नष्ट होते है जबकि दूसरों की सेवा करने से हमारे पुण्य बढ़ते हैं इसलिए हमें निरंतर सेवा करते रहना चाहिए। सुखी जीवन जीने के लिए जीवन में नियम व निति से रहने की प्रेरणा देते हुए पूज्य आचार्यश्री जी ने कहा कि जो व्यक्ति धर्म के पथ पर चलकर नियम व निति से जीवन जीता है, सुख स्वंय उसके पीछे दौडे चले आते हैं क्योंकि बिना निति से, नियम से, मूल्य से, सिध्दांतों से एवं परम्पराओं से व्यक्ति अधूरा रहता है। धर्म लोगों को सीधे मानवता के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करता है। मानवता की सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है। इंसान एक-दूसरे के काम आये यही सबसे बड़ा धर्म है। अतः सात्विक निष्काम सेवा से ही जीव को मोक्ष की प्राप्ति होता है। संत-सत्पुरुषों का सदा से ही यह प्रयास होता है कि लोगों का यह लोक तो सुधरे ही साथ ही उनका परलोक भी सुधर जाये…।

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