भगवान का चिंतन करने से धीरे-धीरे उनके गुण हममें आने लगते हैं : स्वामी अवधेशानन्दं जी महाराज

पूज्य सद्गुरुदेव आशीषवचनम्
          ।। श्री: कृपा ।।
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 न्यूज़ डेस्क : पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – स्मृतियों के जगत् में परमात्मा से मधुर-दिव्य, अद्भुत और उदात्त-अनुपम अन्य कोई स्मृति नहीं है। भगवदीय स्मृति अपूर्व ऊर्जा, सामर्थ्य और आनंद प्रदात्री है। अतः भगवदीय स्मृति बनी रहे ! सर्वत्र सभी नाम रूपों में प्रभु ही है, ऐसी भावना दृढ़ रहे ..! भगवान के दिव्य गुणानुवादों के श्रवण, मनन और चिंतन से जीवन में शुभता, श्रेष्ठता और दिव्यता का आरोहण होता है। अतः इहलौकिक एवं पारलौकिक अनुकूलताओं के लिए भगवान का स्मरण प्रतिपल करते रहें ! मनुष्य को हमेशा भगवान का चिंतन करना चाहिए। भगवान का चिंतन करने से धीरे-धीरे उनके गुण हममें आने लगते हैं।
यदि मनुष्य वास्तविक शांति चाहता है, तो उसे चिंता को घटाकर चिंतन को बढ़ाना होगा। जीव चिंता छोड़कर भगवान का चिंतन करे। चिंतन, भजन और मनन करने से काम, क्रोध, लोभ और मोह से मुक्ति मिलती है। तब ही प्रभु की भक्ति में मन लगता है। मन की व्यथा भुलाकर प्रभु की कथा में मानव मन लगाए तो उसके दु:ख दूर होते हैं। परमात्मा का कोई आदि है न कोई अंत, वे तो निराकार स्वरूप हैं। भक्त उनका जिस रूप में स्मरण करता है वे उसे उसी रूप में दर्शन देते हैं। आत्मा-परमात्मा का सीधा संबंध है। जब तक मनुष्य अपनी आत्मा के विकार और मन को शुद्ध नहीं करता है, उसे परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – यदि आप बहुत तनाव में जीवन जी रहें है तो तनाव को कम करने के लिए हर दिन सिर्फ दस मिनट ईश्वर की बनायी हुई प्रकृति को अवश्य निहारें। यह ईश्वर का दिया हुआ अमूल्य उपहार है। आकाश के बादल, ठंडी हवाएं, खिलते हुए फूल, चहचहाती चिड़ियाँ, खेलती हुई गिलहरियां यह सब आपके लिए ही बनाई गई हैं। परेशानियां सबके पास हैं केवल आपके ही पास नहीं। इसलिए आप अपना नजरिया बदलें; नज़ारे अपने आप बदल जाएंगे। अपने जीवन की बागडोर अपने हाथ में लीजिए। परेशानियों से निपटने के लिए निश्चित रूपरेखा बनाइए और आगे बढ़िए। आपके सुखद जीवन की कल्पना शुभ चिंतन से साकार होगी। अतः “चिंतन करिए, चिंता नहीं …”।
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 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – ईश्वर के गुणों का ज्ञान प्राप्त करने का प्राचीन उपाय तो वेद व उपनिषद आदि ग्रन्थ ही हैं। वेद व वेदभाष्य का अध्ययन कर के अनन्त गुणों वाले ईश्वर के अनेकानेक गुणों का ज्ञान भी प्राप्त होता है। ईश्वर के स्वरूप पर दृष्टि डालें तो ज्ञान हो जाता है। वेदों में ईश्वर का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव, अद्वितीयानुपमजगदादिकारण, सनातन, सर्वमंगलमय, सर्वस्वामिन्, करुणाकरास्मत्पितः, परमसहायक, सर्वानन्दप्रद, सकलदुःखविनाशक, अविद्यान्धकारनिर्मूलक, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारिन्, जगदीश, सर्वजगदुत्पादकाधार सृष्टिकर्ता आदि आदि …! वेदों का अध्ययन कर मनुष्य को ईश्वर के अधिकांश एवं पर्याप्त गुण, कर्म व स्वभाव का ज्ञान होता है। यही ईश्वर का सत्य-स्वरूप है।
अतः वेदों सहित दर्शन व उपनिषदों आदि का स्वाध्याय कर ईश्वर, जीव व सृष्टि के सत्य व शुद्ध स्वरूप को जानना भी ईश्वर की उपासना के अन्तर्गत ही आता है। यदि मनुष्य ईश्वर व आत्मा के स्वरूप को जान ले और ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार अपना आचरण बना ले, तो वह सफल मनुष्य व सच्चा उपासक बन सकता है। उपासना की सफलता पर समाधि का लाभ प्राप्त होता है। समाधि लाभ से ईश्वर साक्षात्कार और विवेक की उत्पत्ति होती है। उपासक जीवनमुक्त अवस्था को प्राप्त हो जाता है और जब उसके अधिकांश भोग समाप्त होने पर मृत्यु आती है तो वह जन्म व मरण के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। यही जीवन की अन्तिम व प्रमुख उपलब्धि होती है। इसलिए जिसे यह प्राप्त हो गई, उसका जीवन सफल होता है …।

पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – ईश्वर को जानना, उसके स्वरूप व गुणों का चिन्तन, मनन तथा ध्यान तथा सदाचरण ही उपासना है। मनुष्य मननशील प्राणी है। मनन का अर्थ सत्य व असत्य का विचार व निर्णय करना है। इसके लिए हमें चिन्त्य विषय का अध्ययन करना होता है। इसके लिए हमारे शास्त्र या फिर आजकल के लौकिक विषयों की अनेक पुस्तकें व ग्रन्थ उपलब्ध हैं। अनुभवी विद्वानों से भी विचारणीय विषय के बारे में ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। विचार व मनन करने पर संसार में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति यह तीन महत्वपूर्ण पदार्थ ज्ञात होते हैं। इन्हें जानना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। ज्ञान भी दो प्रकार का कहा जा सकता है – एक सद्ज्ञान व दूसरा मिथ्या ज्ञान। मिथ्या ज्ञान को अविद्या भी कह सकते हैं। आजकल ईश्वर के स्वरूप के विषय में संसार व अपने देश के अधिकांश लोग अज्ञान व अविद्या से ग्रस्त हैं। ईश्वर विषयक सत्य ज्ञान हमें वेदों व वेदानुकूल ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। वेद संस्कृत में हैं। वेदों की संस्कृत लौकिक संस्कृत न होकर एक विशिष्ट संस्कृत है जो ईश्वर की अपनी भाषा है।
इसी भाषा में ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ काल में चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया था। ईश्वर से वेदों का ज्ञान मिलने के बाद कुछ काल बाद लिपि व व्याकरण आदि का ज्ञान ऋषियों ने रचा और वेदों को लिपिबद्ध किया। तभी से अर्थात्, सृष्टि के आरम्भ से ही वेदाध्ययन व वेद प्रचार की परम्परा आरम्भ हो गई थी। किसी भी भाषा को जानने के लिए उसके शब्दों का अर्थ व उसका व्याकरण आना चाहिये। इसके लिए ऋषियों व विद्वानों के समुचित ग्रन्थ उपलब्घ हैं, जिसका अध्ययन कर वेद व ऋषियों के बनाये इतर शास्त्रों को जाना जा सकता है। इस प्रकार इससे ईश्वर के सत्यस्वरूप सहित जीवात्मा और सृष्टि का भी यथोचित ज्ञान प्राप्त हो जाता है …।

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