स्वयं के रूपान्तरण के प्रति सजग रहें: स्वामी अवधेसानंद जी

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
           ।। श्री: कृपा ।।
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 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – जीवन की श्रेष्ठता सदगुण-संचयन एवं आध्यात्मिक अन्त:करण निर्मिती में निहित है करुणा, परदुःखकातरता, आचरण की शुचिता, अक्रोध-अलोभ वृत्ति और पारमार्थिकता आदि सदगुणों से मनुष्य में दैवत्व का आरोहण होता है; प्रतिकूलताएं अनुकूलताओं में बदल जाती हैं। अतः स्वयं के रूपान्तरण के प्रति सजग रहें ..! भारतीय अध्यात्म परंपरा में जीवन की उत्सवपूर्णता को सदा जागृत रखने के सूत्र समाये हुए हैं। मनुष्य का जीवन ईश्वरीय खोज की यात्रा पर निकलने के लिए एक उत्तम अवसर है और जब इस अवसर को उत्सवपूर्वक जीया जाए तो यात्रा सहज और सुगम हो जाती है। मनुष्य जीवन अंतहीन सम्भावनाओं का नाम है। सारी संभावनाएं हमारे आस-पास ही तो हैं, पर हमें इनकी अनुभूति नहीं होती है। यहां अनेक अवसर हैं। जब ये सारे अवसर प्रकट होने लगते हैं, सारी संभावनाएं उजागर होने लगती हैं तो स्वयं के प्रति गौरव का बोध होने लगता है।
फिर अज्ञानता के कारण असमर्थता, विवशता, अल्पता के रूप में जो एक बड़ा अभाव दिखाई दे रहा होता है, वह पल भर में मिट जाता है, जैसे स्वप्न के दु:ख चले जाते हैं, आंख खुल जाने के बाद। “उघरहिं विमल विलोचन हिय के, मिटहिं दोष दु:ख भवरजनी के” …, कुछ ऐसा सत्पुरुषों का कहना है कि हृदय के नेत्र खुल जाते हैं तो फिर भाषा बदल जाती है, चिंतन बदल जाता है, दिशाएं बदल जाती हैं, इस तरह हमारा पूरा जीवन बदल जाता है। यह केवल परिवर्तन नहीं, रूपांतरण होता है। हमारे अंदर जो विद्यमान है, वह प्रकट होने लगता है। जब ऐसा अनुभव होता है, तो दुःख, दैन्य और दरिद्रता के लिए कोई स्थान नहीं रहता। हताशा, निराशा न जाने कहां चले जाते हैं, भय और संशय भी कहाँ रहते हैं। और, ये सब तब होता है, जब कहीं हमारे ज्ञान चक्षु खुल जाएं और यह एक बड़ी घटना होती है। एक बार स्वयं को समझना आवश्यक है कि हमारी विचार शक्ति कितनी बड़ी है, क्योंकि विचार बदलने से संसार बदल जाता है। जैसे व्यक्ति और साधक अंतर्मुखी होता है और उसमें शुभ-संकल्प जगने लगते हैं। तब हमारे अंदर एक सकल रूपांतरण घटित होता है। कहीं जाने-अनजाने किसी आध्यात्मिक परिवेश का यदि हम हिस्सा बन जाएं और उसकी समीपता हमें मिल जाए, साथ ही यह आध्यात्मिक परिवेश हमें लंबे समय के लिए मिल जाए, तो हमारे भीतर शुभ-संकल्प जगने लगते हैं …।
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 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – आप एक साधक हैं और आपकी प्रतिक्रिया हमेशा सधी हुई होनी चाहिए। आपकी प्रतिक्रिया से किसी का भी अहित नहीं होना चाहिए, किसी को दु:ख नहीं पहुँचना चाहिए। संस्कारित प्रतिक्रिया दीजिए, ऐसी बात रखिए जिसमें शहद सी मिठास हों। यदि आपको सुंदर बनना हो तो एक युक्ति आपको बताता हूं। विचार सुंदर रखना, आप सुंदर हो जाओगे। किसी को दुखी नहीं करते, किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते। आप बहुत सभ्य हैं, बहुत संतुलित हैं, क्योंकि आप आध्यात्मिक हैं। गुरु द्रोणाचार्य ने दुर्योधन से पूछा कि तुझे देखकर अच्छा नहीं लगता, तेरा आचरण सबको दु:ख देता है, तू स्वयं को सही राह पे क्यों नहीं लाता? दुर्योधन कहता है – “जानामि धर्मम् न च मे प्रवृत्तिः। जानामि अधर्मम् न च मे निवृत्तिः …।।” अर्थात्, हे गुरुदेव ! ऐसा नहीं है कि मैं धर्म नहीं जानता हूं, मैं धर्म को जानता तो हूं, लेकिन उसमें प्रवृत्त नहीं हो पाता; अर्थात्, उसका पालन नहीं कर पाता हूं। गुरुदेव ने कहा कि जब तुझमें सत्कर्मों की प्रवृत्ति होगी, तब तू ठीक हो जाएगा। तू मेरे पास सत्संग के लिए आया कर, सब ठीक हो जाएगा। ऐसा नहीं है कि हम लोग जानते नहीं हैं, बस अभ्यास नहीं कर रहे हैं।
अगर अभ्यास करते भी हैं, तो वह बहुत छोटे स्तर पर होता है। हम स्वयं को देह माने बैठे हैं। कुल, गोत्र माने बैठे हैं। स्वयं को हमने संकुचित कर रखा है। हमें अपने ज्ञान चक्षु खोलने होंगे। जो चीज भी हमारी उदारता, शालीनता, विनम्रता आदि को चुनौती देती हो, उसका त्याग कीजिए और स्वयं को सर्वश्रेष्ठ बनाइए। राजनीति चार चीजों से चलती है – साम, दाम, दंड और भेद। रामराज्य केवल धर्म और अर्थ से चलता था। इसलिए जिस दिन आपके पास ज्ञान आएगा तब अर्थ का मर्म भी समझ आ जाएगा। अर्थ का संचय, अर्थ विनिमय, अर्थ का लाभ, सब आसानी से समझ जाएंगे। मेरा ये मानना है कि जैसे ही आप अाध्यात्मिक होते हैं, तो अर्थ प्रसाद बन जाता है, फिर वह सबके लिए बन जाता है और परोपकार में खर्च होने लगता है। आज हम इतना आगे बढ़ गए हैं कि परोपकार के ये कार्य पीछे छूट गए हैं। दूसरों का हिस्सा हम भूल गए हैं। यदि आप बहुत अधिक सामर्थ्यवान बनना चाहते हैं, तो समता में जीवन जी कर देखें। गुरुतत्व का अर्थ भी वही है, जिसमें समता है। अतः पहले ज्ञानार्जन कीजिए, फिर धनार्जन तभी धन का सही सदुपयोग कर पाएंगे, आप। लेकिन बिना ज्ञान के जो धन आया है, वह अनर्थ भी कर सकता है। मनुष्य जीवन के लिए सबसे उपयोगी हैं – ज्ञानार्जन, फिर धनार्जन और फिर पुण्यार्जन। हम पूरी प्रकृति से परहित के बारे में सीख सकते हैं कि किस तरह से वृक्ष छांव दे रहे हैं, किस तरह से औषधियां जीवनदायिनी हैं। अंबर, धरा, जल, वायु, नक्षत्र, निहारिकायें, तारिकाएं सब परहित के लिए काम कर रही हैं। तो, आइये ! हम भी कुछ सत्कर्म करके दूसरों के बारे में सोचना प्रारम्भ कर दें …।

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