पूज्य सद्गुरुदेव अवधेशानंद जी महाराज आशिषवचनम्

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
???? पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – प्रकृति अन्न-जल, वन-औषधि, प्राण-पवन, आकाश-प्रकाश, अंतरिक्ष एवं समग्र दिशाओं से प्रत्येक प्राणी के जीवन की आधारभूत सत्ता है। अतः स्वाभाविक रहें…! मनुष्य का जीवन पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर है। हम अपनी आवश्यकता की लगभग सभी चीजें प्रकृति से प्राप्त करते हैं। लाखों वर्षों पूर्व जब मनुष्य का ज्ञान एक पशु से अधिक नहीं था, तब भी मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक सभी चीजें प्रकृति से ही प्राप्त करता था। आज जब हम विज्ञान की ऊँचाइयों को छू रहे हैं तब भी हमारी आवश्यकता की पूर्ति प्रकृति से ही होती है। प्रकृति को इसीलिए माता कहा जाता है क्योंकि यह हमारा पालन पोषण करती है। अनंत काल से यह हमारी सहचरी रही है। प्रकृति का मनुष्य जीवन में इतना महत्त्व होते हुए भी हम अपने लालच के कारण उसका संतुलन बिगाड़ रहे हैं। प्रकृति में असंतुलन के कारण आज मौसम जिस तरह से बदल रहा है, उसका परिणाम बहुत भयावह हो सकता है। यदि प्रकृति का व्यवहार इस तरह अप्रत्याशित होता गया तो भविष्य में न तो कृषि हो पाएगी न ही उद्योग पनप पाएँगे। प्राकृतिक संसाधन भी अब धीरे-धीरे समाप्त हो चले हैं। यदि मनुष्य इसी तरह अनियंत्रित व्यवहार करता रहा तो हमारी भविष्य की पीढ़ी को कहीं दोबारा पाषाण युग में लौटना ना पढ़ जाए। अतः आज यह अत्यावश्यक हो गया है कि हम हर उस गतिविधि पर रोक लगायें, जिससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है। तभी तो हम अपनी आनेवाली पीढ़ी को एक सुरक्षित भविष्य दे पाएँगे…।

???? पूज्य आचार्यश्री जी ने कहा – मनुष्य सदियों से प्रकृति की गोद में फलता-फूलता रहा है। इसी से ऋषि-मुनियों ने आध्यात्मिक चेतना ग्रहण की और इसी के सौन्दर्य से मुग्ध होकर न जाने कितने कवियों की आत्मा से कविताएँ फूट पड़ीं। वस्तुतः मानव और प्रकृति के बीच बहुत गहरा सम्बन्ध है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। मानव अपनी भावाभिव्यक्ति के लिए प्रकृति की ओर देखता है और उसकी सौन्दर्यमयी बलवती जिज्ञासा प्रकृति सौन्दर्य से विमुग्ध होकर प्रकृति में भी सचेत सत्ता का अनुभव करने लगता है। हमारे धार्मिक ग्रंथ, ऋषि-मुनियों की वाणियाँ, कवि की काव्य रचनाएँ, साधु-संतों के अमृत वचन सभी प्रकृति की महत्ता से भरे पड़े है। विश्व की लगभग सभी सभ्यताओं का विकास प्रकृति की ही गोद में हुआ और तब इसी से मनुष्य के रागात्मक सम्बन्ध भी स्थापित हुए, किन्तु कालान्तर में हमारी प्रकृति से दूरी बढ़ती गई। इसके फलस्वरूप विघटनकारी रूप भी सामने आए। मत्स्यपुराण में प्रकृति की महत्ता को बतलाते हुए कहा गया है – एक वृक्ष सौ पुत्र समान है। प्रकृति की इसी महत्ता को प्रतिस्थापित करते हुए पद्मपुराण का कथन है कि जो मनुष्य सड़क के किनारे तथा जलाशयों के तट पर वृक्ष लगाता है, वह स्वर्ग में उतने ही वर्षों तक फलता-फूलता है, जितने वर्षों तक वह वृक्ष फलता-फूलता है। इसी कारण हमारे यहाँ वृक्ष पूजन की सनातन परम्परा रही है। यही पेड़ फलों के भार से झुककर हमें शील और विनम्रता का पाठ पढ़ाते हैं। उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द ने एक स्थान पर लिखा है कि साहित्य में आदर्शवाद का वही स्थान है जो जीवन में प्रकृति का है। अस्तु! हम कह सकते हैं कि प्रकृति से मनुष्य का सम्बन्ध अलगाव का नहीं है, प्रेम उसका क्षेत्र है। सचमुच प्रकृति से प्रेम हमें उन्नति की ओर ले जाता है। और, इससे अलगाव हमारे अधोगति के कारण बनते हैं। एक कहावत भी है – कर भला तो हो भला…।

Comments are closed.