डॉनल्ड ट्रंप—जलवायु समझौते पर अमेरिका की मुश्किलें

डॉनल्ड ट्रंप पहले अमेरिकी राष्ट्रपति नहीं हैं जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय जलवायु संधि को चुनौती देकर दुनिया भर के साथियों के धैर्य की परीक्षा ली है. पेरिस संधि से पहले दो दशक के दौरान अमेरिकी रुख

शुरुआत से ही जब 1992 में रियो में संयुक्त राष्ट्र के जलवायु कंवेशन पर दस्तखत हुए, तो अमेरिका ने ग्रीनहाउस गैस पर किसी भी प्रकार की सीमा लगाने का विरोध किया. इसके विपरीत वाशिंगटन ने हमेशा राष्ट्रीय संप्रभुता की बात की, जब भी यह तय करने की बात हुई कि किस गैस को कम करना है, किस तरह, कितना और कब.

1997 में अमेरिका ज्यादातर देशों की तरह क्योटो संधि में शामिल होने को तैयार हो गया, जिसमें सिर्फ धनी देशों के लिए उत्सर्जन में कमी के बाध्यकारी लक्ष्य तय किये गये थे, जो ग्लोबल वॉर्मिंग का स्रोत समझे जाने वाले कार्बन प्रदूषण के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार माने जाते हैं. अमेरिका कई रियायतें हासिल करने के बाद इसके लिए तैयार हुआ.

बिल क्लिंटन के उपराष्ट्रपति अल गोर ने 1998 में अमेरिका की ओर से इस संधि पर हस्ताक्षर किये, लेकिन डेमोक्रैटिक प्राशासन इस संधि के औपचारिक अनुमोदन के लिये सीनेट में जरूरी दो तिहाई बहुमत कभी नहीं जुटा पाया. और जब बिल क्लिंटन के बाद जॉर्ज डब्ल्यू बुश राष्ट्रपति बने तो सारी स्थिति बदल गई.

पिता जॉर्ज बुश की तरह जूनियर बुश भी ऐसी संधि के विरोधी थे जो उनके विचार में विकासशील देशों को फोसिल इंधन जलाने और अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ाने की छूट देता था जबकि धनी देशों के हाथ उत्सर्जन की सीमाओं के साथ बांध दिये गये थे.

यह संधि 2005 में अमेरिका की भागीदारी के बिना शुरू हुई. रूस के हस्ताक्षर के साथ संधि को लागू करने के लिए जरूरी 55 देशों ने इस पर अनुमोदन के बाद दस्तखत कर दिये थे. कनाडा बाद में संधि से बाहर निकल आया जबकि न्यूजीलैंड, जापान और रूस ने कार्बन कटौती के दूसरे चरण में भाग नहीं लिया.

2009 में दुनिया भर के देश क्योटो प्रोटोकॉल की जगह पर एक नई संधि करने के लिए इकट्ठा हुए जिसमें अमेरिका, चीन और भारत सहित सभी देशों को कार्बन कटौती के लिए सक्रिय कदम उठाने थे. लेकिन धनी और गरीब देशों के बीच बोझ के बांटने के मुद्दे पर मतभेदों के बीच कोपेनहैगन सम्मेलन विफल हो गया.

कुछ दूसरे देशों के समर्थन के साथ अमेरिका ने इस पर जोर दिया कि डील को संधि न कहा जाये. अंत में बैठक में एक अनौपचारिक समझौता हुआ जिसमें औसत ग्लोबल वॉर्मिंग को औद्योगिक पूर्व स्तर से 2 डिग्री पर रोकने पर सहमति हुई, लेकिन उत्सर्जन में कटौती का कोई लक्ष्य तय नहीं हुआ.

अगला लक्ष्य 2015 तक वैश्विक संधि कर लेने का हुआ जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चीन के शी जिनपिंग के साथ मिलकर भारत सहित 195 देशों को जलवायु संधि के लिए इकट्ठा किया. उत्सर्जन लक्ष्यों को प्रतिबद्धता के बदले योगदान कहा गया जिसकी वजह से ओबामा इस संधि का अनुमोदन कर पाये.

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