जो व्यक्ति अपनी ज्यादा प्रशंसा सुनना पंसद करता है, वह कभी ऊंचाई नहीं छू पाता: स्वामी अवधेशानन्दं जी महाराज

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
           ।। श्री: कृपा ।।
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 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – अनुशासन जीवन लक्ष्य-सिद्धि में सहायक उपक्रम है। जिस प्रकार सागर तक पहुँचने के लिए सरिताओं में निश्चित लय-गति, प्रवाहमानता एवं तटों का अवलम्बन-अनुशासन आवश्यक है, उसी प्रकार जीवन में उच्चतम लक्ष्यों की प्राप्ति  के लिए आत्मानुशासन  परमावश्यक है ..! मन, वचन-कर्म की एकता, पवित्रता और अनुशासन जीवन की सही दिशा के कपाट खोलने में सहज सहायक हैं। परमार्थ के कार्यों में निवेश करने से जीवन सिद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है। परोपकारी और उदारमना जीवन में आगे बढ़ने के सबसे बड़े मार्ग हैं। जिस प्रकार सागर तक पहुंचने के लिए सरिता में तटों का अवलंबन होता है। उसी प्रकार जीवन में उच्चता की प्राप्ति के लिए आत्मानुशासन आवश्यक है। अनुशासन जीवन सिद्धि और सफलता का मूल मंत्र है। जीवन सिद्धि का प्रथम सोपान आत्मअनुशासन है। जीवन की श्रेष्ठता और उच्चता के लिए सहजता, सरलता और विनम्रता जरूरी है। मनुष्य होने का अर्थ है – जिसके पास स्वभावतः शोध, अन्वेषण और गवेषणा की प्रवृत्ति है। मनुष्य की शोध प्रवृत्ति ने मानव जाति को लाभान्वित किया है। हमारे ऋषि-मुनियों ने भी कण-कण में ईश्वर को ढूंढ़ा। मनुष्य की नियति तो ईश्वर होने की है। देव बनना तो उसकी यात्रा का पड़ाव मात्र है। अतः जिस दिन उसका ज्ञान के गलियारे में प्रवेश हो जाता है, वह निष्काम कर्म योग की कला को प्राप्त हो जाता है, उसे निपुणता प्राप्त हो जाती है और यदि वह किसी जाग्रत गुरु के पास चला जाता है, तब वह स्वयं ब्रह्म हो जाता है …।
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 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – स्वस्थ समाज के लिए आत्म जागरण जरूरी है। यह आर्थिक युग है। इसमें पदार्थ की अधिक इच्छा के कारण व्यक्ति अशांत रहता है। अति स्वच्छंद और अनियंत्रित भोगवाद के कारण स्वस्थ समाज का निर्माण नहीं हो पा रहा है। इसके लिए हर मनुष्य को अनुशासित व संस्कारित होना होगा, तभी वह समाज व सृष्टि के लिए उपयोगी होगा। व्यक्ति को संस्कारित करना ही अध्यात्म का काम है। हमें सकारात्मक दृष्टिकोण रखना चाहिए। सकारात्मक विचार दु:ख, दैन्य और अल्पता के निवारण की सर्वोत्तम औषधि है। जिस प्रकार औषधि शारीरिक व्याधियों का निदान करती है उसी प्रकार आध्यात्मिक विचार हमें सुख, शांति, संपन्नता और इहलौकिक और पारलौकिक अनुकूलता प्रदान करते हैं। जो व्यक्ति अपनी ज्यादा प्रशंसा सुनना पंसद करता है, वह कभी ऊंचाई नहीं छू पाता। यही अवगुण दशानन रावण में भी था। वह अपनी गलती को स्वीकार न करते हुए प्रशांसा सुनने में ज्यादा मन लगाता था। रावण को कई बार उसकी पत्नी मन्दोदरी और भाई विभीषण ने समझाया, लेकिन उसे बात समझ नहीं आई। इसीलिए प्रभु श्रीराम के हाथों रावण का नाश हुआ। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – जागे हुए महापुरुषों का, संतों का संग करने से जीवन में अनुशासन आता है। प्रभु श्रीराम कहते हैं कि संत वह है जिसने षट विकारों (काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सर आदि) पर विजय प्राप्त कर ली हो, जो निष्पाप और निष्काम हो, सांसारिक वैभव से विरक्त, इच्छारहित और नियोगी हो, दूसरे का सम्मान करने वाला मदहीन हो, अपने गुणों के श्रवण करने में संकोच करता हो और दूसरों के गुण-श्रवण में आनंदित होता हो, कभी नीति का परित्याग न करता हो, सभी प्राणियों में प्रेम-भाव रखता हो। श्रद्धा, क्षमा, दया, विरति, विवेक आदि का पुंज हो ऐसे संत-सत्पुरुषों के दर्शन मात्र से ही आत्मकल्याण के कपाट खुल जाते है …। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – महापुरुषों का जीवन दर्शन हमारे लिए मार्गदर्शक का काम करता है। महापुरुषों के बिना समाज का कोई स्वरूप नहीं होता है। देश के विकास तथा सभ्य समाज के निर्माण के लिए महापुरुषों के दर्शन और शिक्षा रूपी विरासत को संजोए रखना जरूरी है …।
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 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – जिस सभा में संत उपस्थित होते हैं उसमें सम्पूर्ण भारत के दर्शन होते हैं। संत- सत्पुरुषों को वैराग्य ऐसा पक्का होता है कि जीवन में आने वाली ब़डी से ब़डी बाधाएं, विपदाएं आने पर भी वे घबराते नहीं है और अपने पंथ को नहीं छो़डते हैं। एक महापुरुष की जीवन और आचरण उस नारियल की तरह होता है जो ऊपर से क़डक परन्तु अंदर से कोमल, सुन्दर व मधुर गुणकारी होता है। इसी प्रकार एक सच्चा संत ऊपर से कठोर दिखाई देता है, मगर जब किसी जीव को दु:ख व दुविधा में देखता है तो उसका दु:ख द्रवित हो जाता है। सरोवर, वृक्ष, संत और मेघ यह चारों सदैव परोपकार के लिए जीते हैं। संत, बादल और नदी इन तीनों की चाल भुजंग की तरह होती है। वह जहां जहां जाते हैं सभी को निहाल कर देते हैं। संतों के तो मात्र दर्शन करने से पुण्यवानी का बंध होता है, संतों को तीर्थ से भी ब़ढकर बताया गया है। तीर्थ स्थान पर जाने से फल की प्राप्ति होती है, लेकिन संतों के दर्शन मात्र से ही आत्म-कल्याण हो जाता है। संतों ने भारत के कण-कण में धर्म को स्थापित किया। इसलिए शरीर में जो महत्व प्राण का है वही महत्व राष्ट्र में धर्म का है। यदि धर्म चला गया तो जैसी हालत प्राण के बिना शरीर की होती है वैसी ही राष्ट्र की हो जाएगी। उन्होंने कहा कि  तीर्थंकरों, आचार्याें और मुनियों ने सदियों से इस धर्मध्वजा को भारत में ही नहीं बल्कि विश्वभर में फहराया है। इस प्रकार उन्होंने सत्य की खोज कर उसे अपने जीवन में उतार लिया, इसीलिए वे तीर्थंकर कहलाए …।

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