जीवन में जितनी पवित्रता होती है, जीवन का उत्कर्ष भी उतना ही होता है: स्वामी अवधेशानंद जी महाराज

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
           ।। श्री: कृपा ।।
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 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – पवित्रता दैवत्व के आरोहण और पात्रता विकास में सहायक है। अध्यात्म का बीज पवित्र अन्तःकरण के संस्पर्श में ही विकसित-अंकुरित होता है।  अतः मनसा वाचा कर्मणा पवित्र रहें ..! मन, वचन और कर्म की पवित्रता और इन्द्रिय संयम ही साधना का प्रथम सोपान है। जिसका अन्तःकरण पवित्र है उसके हृदय में ना तो किसी से राग होता है और ना द्वेष। वह कभी किसी से बड़ा बनने का प्रयास नहीं करता। परम पवित्रता का नाम संन्यास है। संन्यास ऐसा धर्म है जो अग्नि की तरह पवित्र है। संन्यासी जीवन जल जैसा तरल, सागर जैसा गंभीर और अग्नि जैसा पवित्र होता है। जैसे वृक्ष अपना फल कभी नहीं खाता है, उसी प्रकार साधु अपना जीवन दूसरों के लिए समर्पित कर देता है। संन्यास का अर्थ है – सम्यक न्यास। वो जिसकी संपदा सबके लिए है। फल, फूल, जल और प्रकाश जैसे कई उदाहरण हैं, जो अपने लिए नहीं, सबके लिए होते हैं। ठीक उसी तरह संन्यासी भी सबके लिए है। एक सामान्य व्यक्ति के भीतर संसार रहता है, लेकिन साधु में संसार नहीं रहता। पवित्रता के लिए हमें अपने अवगुणों को हटाकर, सदगुणों को बढ़ाना होगा।
सदगुणों को आचरण में लाना ही भाव शुद्धि है। आराधना, उपासना, प्रार्थना, साधना और त्याग तपस्या से अपने मन को पवित्र और पावन कर सकते हैं। हमारी प्रत्येक इच्छा पवित्र और प्रखर बने। पवित्र बुद्धि में ही आत्म-साक्षात्कार की क्षमता आती है। मन की पवित्रता से ही मनुष्य अपने मन को एकाग्र कर सर्व इंद्रियों पर विजय प्राप्त करता है। भगवान ने भी गीता में कहा है कि जो व्यक्ति मन से पवित्र और निश्छल होता है वही मुझे प्रिय है। भाव की पवित्रता से भक्ति मिलेगी। स्वयं के प्रति अविश्वास की भावना पैदा होना पलायन है। पलायन करने वाला व्यक्ति बहाने बनाता है। वह लक्ष्य से भटक जाता है। वह संशय, भय और असमंजस में रहने लगता है। इससे जड़ता और अकर्मण्यता भी आती है। जो भोग के परिणाम से परिचित हैं, वे कभी दु:खी नहीं होते। जो शांतिकारक है उस ज्ञान की माँ का नाम है – भक्ति। भक्ति वो विधा का नाम है जो जीवन में पवित्रता लाती है, जो आपको सहज करती है, सरल करती है, सुकोमल बनाती है और संवेदनशील बनाती है। भक्ति से हम झुकना सीख लेते हैं। भक्ति से भक्त में विनम्रता आ जाती है। भक्ति का अर्थ ही यही है कि आप अहमशून्य हो जाते हैं। चरित्र और नैतिकता भारतीय प्राचीन संस्कृति का आदर्श रही है। सौहार्दपूर्ण सह अस्तित्व तभी संभव है, जब हमारा जीवन मानवीय नैतिक मूल्यों से संपन्न होगा। चरित्र को सबसे बड़ा धन कहा गया है और चरित्र की पवित्रता ही सबसे बड़ी साधना है। सकारात्मक परिवर्तन के लिए आवश्यक प्रेरणा का अभाव है, लेकिन स्वयं के परिवर्तन से संसार परिवर्तन के आदर्श सिद्धांत पर अग्रसर होकर ही लक्ष्य को हासिल करने में सफलता पाई जा सकती है …।

पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा –  पवित्र-मन, समर्पित-बुद्धि, निराभिमानता और सत्संग-सातत्त्य भवतारक साधन हैं ! शुद्धि के बिना सिद्धि संभव नहीं है। तभी तो हमारे दैनिक जीवन में पवित्रता का विशेष महत्व है। साधना की पहली सीढ़ी है – शुद्धि। यानी, यम और नियम का पालन। जीवन में जितनी पवित्रता होती है, जीवन का उत्कर्ष भी उतना ही होता है। शुद्धि से तात्पर्य मात्र शरीर का नहीं है; बल्कि मन, प्राण और भाव-विचार के साथ-साथ हमारा अंत:करण भी निर्मल होना चाहिए। शुद्धि का प्रारंभ समता से होता है। इसके माध्यम से व्यक्ति धीरे-धीरे अज्ञान व अंधकार के आवरण से पार पाता है। इस शुद्धि के फलस्वरूप मन की शांति, चित्त की स्थिरता और प्राण की एकाग्रता व हृदय की तन्मयता का प्रादुर्भाव स्वभावत: होने लगता है और आनंद का अवरोहण भी तभी संभव होता है। शुद्धि से आत्मा विभिन्न वासनाओं और आकर्षणों से मुक्त होती है। सिद्धि प्राप्ति से पहले की प्रारंभिक अवस्था शुद्धि है। शुद्ध भावों वाला व्यक्ति ही परमात्मा को प्रिय होता है। पूजन-अर्चन व प्रार्थना में शुचिता यानी पवित्रता का विशेष महत्व है। आचार-विचार के साथ-साथ जीवन के अन्य क्षेत्रों, जैसे – व्यापार में पैसे के लेन-देन और नौकरी आदि में ईमानदारी व क‌र्त्तव्य के प्रति निष्ठावान बने रहना भी पवित्रता की ही श्रेणी में आते हैं। व्यक्ति चाहे किसी भी क्षेत्र में कार्यरत हो, वह वहां रहते हुए भी पवित्रता का ध्यान रख सकता है।
पवित्रता को नित्य-प्रतिदिन की दैनिकचर्या में रखकर हम अपने बौद्धिक स्तर तो उत्तम बना ही सकते हैं, साथ ही स्वयं सुखी रहते हुए अन्य लोगों को भी इस राह पर अग्रसर कर सकते हैं। पवित्रता जीवन का मूल आधार है। आज समाज में जो नैतिक पतन हो रहा है, उसका एक खास कारण शुचिता की ओर ध्यान नहीं दिया जाना है। व्यक्ति जैसे ही पवित्रता की तरफ एक कदम बढ़ाता है, उसकी सोच में निखार आने लगता है, उसकी भौतिक प्रगति के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति भी होती है। अन्य लोग भी ऐसे व्यक्ति के प्रति श्रद्धा व आस्था का भाव रखने लगते हैं। जो भी महापुरुष या ऋषि-मुनि इस देश में हुए हैं, उन्होंने साधना के संदर्भ में पवित्रता को विशेष महत्व दिया है। वे ही हमारे प्राचीन व आधुनिक भारत के प्रेरणास्त्रोत बने। सच तो यह है कि पवित्रता का ध्यान रखे बिना मानव जीवन का कल्याण संभव नहीं है …।

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