मनुष्य की निजता एवं अस्तित्व देह से सर्वथा पृथक है : स्वामी अवधेसानंद जी

ज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
           ।। श्री: कृपा ।।
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 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – मनुष्य की निजता एवं अस्तित्व देह से सर्वथा पृथक है, अतः मृत्यु जीवन यात्रा का अवसान नही, अपितु नवजीवन के आरंभ की भूमिका है ! स्वयं के अविनाशी-स्वरूप का बोध ही मनुष्य-जीवन की महती उपलब्धि है …। स्व-स्वरूप बोध एवं आत्म संतोष में ही शाश्वत सुख है। सांसारिक प्राणी-पदार्थ जीवन में मिलते एवं बिछुड़ते रहते हैं। इनसे मिलने वाले सुख दु:ख भी क्षणिक होते हैं। अत: मानव का इनमें मोह करना भी दुखदायी रहता है, क्योंकि सुख का समय तो अति शीघ्र समाप्त हो जाता है, लेकिन दु:ख की घड़ियाँ लंबी होती है। मानव यह भलीभांति जानता है कि संसार की समस्त वस्तुएं छूट जाने वाली है, यहां तक की शरीर भी साथ जाने वाला नहीं है फिर भी वह सांसारिक प्राणी पदार्थों में मोह वश उलझ कर दु:ख पाता रहता है।
इन व्याधियों से बचने का एक मात्र मार्ग है – अपने स्वरूप को जानकर अपने आप में स्थित हो जाना। यह ज्ञान होने के पश्चात् मानव का अपने से भिन्न प्राणी पदार्थों में मोह क्षीण होकर अपने आप में स्थिति बन जाती है और आत्म संतोष उत्पन्न होने लगता है। यह प्रक्रिया जीवन में धीरे-धीरे साधना से ही संभव हो पाती है। अतः बिना स्व-स्वरूप बोध एवं आत्म-संतोष के कहीं भी शाश्वत सुख की प्राप्ति संभव नहीं है। यदि मानव अपने आप में संतुष्ट रहे, इधर-उधर सांसारिक प्राणी तथा पदार्थों में मोह न करे तो उसका हृदय शीतल हो सकता है और उसे परमानंद की, ब्रह्मानंद की प्राप्ति हो सकती है …।
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 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मनुष्य के मूल स्वरूप का बोध कराती है – भागवत। जीवन में हमेशा एक बात याद रखने की है कि जीव ईश्वर का अंश है। जो गुण ईश्वर में हैं, वही गुण अंशी रूपी जीव में भी है। ईश्वर अविनाशी है, अतः जीव भी अविनाशी हुआ। इसीलिए कहते हैं कि आत्मा अजर-अमर है। परमात्मा चैतन्य है तो जीव जड़ नहीं है, वह भी चेतन है। परमात्मा अमर है तो जीव भी अमर है। श्रीतुलसीदास जी ने जीव को निर्मल नहीं कहा। उन्होंने भी इसे अ-मल कहा है। निर्मल कहते तो गंदा होने की संभावना रहती; लेकिन उन्होंने अ-मल कहा है। अ-मल का अर्थ यह है – जिसमें मल ही नहीं है। और जिसके अंदर मल नहीं है, मलिनता नहीं है, वह अ-मल हुआ। “ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखराशि …”।। जब परमात्मा में मलिनता नहीं है, तो आत्मा में भी मलिनता संभव नहीं है।
जल गंदा होता है, तो उसे निर्मल करना पड़ता है। मगर आत्मा अमल है, निर्मल नहीं, क्योंकि उसमें गंदगी हो ही नहीं सकती। इसलिए अ-मल के आगे कहते हैं कि सहज सुखराशि है। अर्थात्, सुख का खजाना है; इसलिए वह है ही सुखरूप। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि जीव स्वरूप से तो सुखरूप है, मगर उनका स्वभाव ऐसा है कि बात-बात में दु:खी हो जाता है। रोते भी हैं और रुलाते भी हैं। अगर ऐसा नहीं होता, तो सुख की खोज के लिए कहीं बाहर भटकने की आवश्यकता नहीं होती। शांति को कहां ढूंढने की आवश्यकता है? आनंद की खोज बाहर करने की जरूरत ही क्या है? जब जीव है ही सुख स्वरूप। यह तो ऐसी बात है कि जैसे शक्कर मिठास को, नमक नमकीन और बर्फ शीतलता को ढूंढने निकले। परन्तु, आज सुख और शांति को बाहर खोजने की जरूरत पड़ रही है। और, ऐसा इसलिए है क्योंकि हम अपने स्वरूप को ही भूल गये हैं। अतः अपने वास्तविक स्वरूप की स्मृति और बोध का फलादेश है – निर्भयता और अखण्ड-आनन्द के अनुभव का स्थायी बन जाना। अतः स्वभाव में रहें और दिव्यता में जीयें …!

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