मनुष्य असीम सामर्थ्य और अनन्त ऊर्जावान होता है : स्वामी अवधेशानंद जी महाराज

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
           ।। श्री: कृपा ।।
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 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – आध्यात्मिक अन्त:करण का निर्माण कर मनुष्य असीम सामर्थ्य और अनन्त ऊर्जा का अधिकारी बन सकता है ! आध्यात्मिक यात्रा स्वभाव की यात्रा है। शुभता-दिव्यता और जीवन सिद्धि के सम्पूर्ण सूत्र अध्यात्म में ही समाहित हैं ..! अध्यात्म स्वभाव की यात्रा है। मनुष्य सत्ता में विद्यमान सनातन महासत्ता सर्वत्र चित-घन, पूर्ण-परमानंद स्वरूप है। यह विश्वरूपा प्रकृति उसका ही एक धर्म परिणाम है, सनातन का धर्म परिणाम सनातन होता है। परम सब प्रकार से पूर्ण है, अतः उसमें कुछ भी अपूर्णता नहीं। इस सत्य का अनावरण है – अध्यात्म। हमारी संस्कृति की जड़ें ही अध्यात्म है। मनुष्य-जीवन ईश्वरीय उपहार है। अतः अपने वास्तविक स्वरूप का बोध और जीवन के प्रयोजन की पूर्ति ही जीवन का लक्ष्य हो; यही परम पुरुषार्थ है ! श्रीमद्भावतगीता को अध्यात्म दीप कहा गया है, इसकी फलश्रुति ही अध्यात्म है। अध्यात्म का अर्थ है – अपने भीतर के चेतन तत्व को जानना और दर्शन करना अर्थात अपने आप के बारे में जानना या आत्मप्रज्ञ होना, गीता के आठवें अध्याय में अपने स्वरुप अर्थात जीवात्मा को अध्यात्म कहा गया है, “परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते …” आत्मा परमात्मा का अंश है यह तो सर्वविदित है।
अध्यात्म की अनुभूति सभी प्राणियों में सामान रूप से निरंतर होती रहती है। स्वयं की खोज तो सभी कर रहे हैं, परोक्ष व अपरोक्ष रूप से, परमात्मा के असीम प्रेम की एक बूँद मानव में पायी जाती है जिसके कारण हम उनसे संयुक्त होते हैं, किन्तु कुछ समय बाद इसका लोप हो जाता है और हम निराश हो जाते हैं। परमात्मा परम दयालु हैं जो हमारे छोटे से छोटे प्रयास से द्रवीभूत हो जाते हैं। अध्यात्म अपने स्वभाव में लौटने की यात्रा का नाम है। जहां शांति, आनन्द और स्थाई समाधान है। अध्यात्म भीतर की उर्जा को, स्वयं की आग को जगाता है। यह बताता है कि कैसे विषम और प्रतिकूल परिस्थितियों में बड़ा बना जाएं? स्वयं का बाहरी विकास विज्ञान है और भीतरी विकास अध्यात्म है। अध्यात्म की प्रेरणा पूरी वसुधा को एक परिवार मान कर चलने की है। बहिर्जगत में विज्ञान ने दुनिया को एक सूत्र में आबद्ध करने का आधार प्रस्तुत किया है तो अंतर्जगत में वही प्रयोजन अध्यात्म पूरा करता है। अध्यात्म के बिना विज्ञान अधूरा है। जीवन की स्वाभाविक मांग अध्यात्म है। जब उसकी पूर्ति होने लगती है, तब सहसा प्रसन्नता, आनंद, उल्लास, जीवन में धन्यता, उत्सव-धर्मिता, स्थायित्व, प्रसन्नता आदि अनुभूत होने लगती है। जिसके आने पर भ्रम-भय नहीं रहता, शोक नहीं रहता, फिर द्वंद भी कहाँ रहता है? हानि-लाभ, जन्म-मरण, यश-अपयश इन द्वंदों से ऊपर उठना ही अध्यात्म है। जो चेतना को प्रसादिक बना दे, वही तो अध्यात्म है। अध्यात्म स्वभाव का नाम है। जो हमें स्वभाव की ओर, अपने अस्तित्व की ओर, अपनी सत्ता की ओर ले आए, उसे अध्यात्म कहते हैं। महापुरुषों के उपदेश ठीक तरह से सुनना आ जाए तो जीवन की शंकायें स्वमेव ही समाप्त हो जाएंगी। आत्म-तत्त्व के दर्शन, जागरण और समुन्नयन के लिए चार सोपान अति आवश्यक हैं – आत्म-निरीक्षण, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास …।
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 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – उचित आहार, व्यायाम, तप आदि के द्वारा अंतःकरण को पवित्र रखना चाहिए। तप अध्यात्म साधना का प्राण है। तप से आत्मा निर्मल और शुद्ध होती है, जब केवल शरीर तपता है। जिस तप में मन नहीं तपता, बुद्धि नहीं तपती तब उसका फल अभिमान है। तप का अर्थ है – हमारा आचरण सत्य हो क्योंकि सत्य ही तप है। सत्य नित्य विद्यमान सत्ता है। जैसे भगवान नित्य विद्यमान सत्ता हैं ठीक वैसे ही सत्य भी नित्य विद्यमान सत्ता है। सत्य भगवान का साकार रूप है। कलयुग में नाम स्मरण की महिमा है। ये बड़ा सहज साधन है। मंत्र भगवान की सूक्ष्म सत्ता है। भगवान का वो सूक्ष्म बीज है। ये बिल्कुल सत्य है कि भगवान की कोई सूक्ष्म सत्ता यदि देखनी हो तो वह मंत्र में छुपी हुई है। भगवान मंत्र में छुपे हैं और देवता मंत्र में छुपे हैं। मंत्र में उनका वास है, अगर वो चैतन्य हो सके तो। जब होंठ हिलते हुए जप होता है उसे उपांसु कहते हैं। जिसमें रोमांचित होते हुए आखों में अश्रु आ जाये उसे कीर्तन कहते हैं। पर जप के लिए ऐसा कहा गया है कि वो मानसिक होना चाहिये। आपका सर न हिले, होंठ ना हिले, आपकी जिह्वा ना हिले। बस मन ही मन जप करें; अर्थ के साथ, भाव के साथ इष्ट के स्वरूप में खोकर। मंत्र से हम इष्ट के साथ एकाकार हो जाते हैं।
एक बहुत बड़ा सत्य यह है कि मंत्र से इष्ट की प्रकृति आपमें प्रकट होने लगती है। इष्ट के स्वभाव स्वरूप उन्हीं के गुण द्रव्य चेतना उन्हीं के स्वरूप को आप उपलब्ध हो जाएंगे। आध्यात्मिक चिन्तन के अंतर्गत व्यक्ति को एकमात्र अतीन्द्रिय स्वरूप अनुसंधान के उद्देश्य को प्राप्त करने का संदेश दिया गया है, जिससे प्रत्येक मनुष्य अपनी स्वाभाविक प्रसन्नता, संतुष्टि तथा शांति को प्राप्त करते हुए श्रेष्ठ जीवन जीने की कला सीख जाए। इस प्रकार मनुष्य के भ्रम, भय, संदेह, तर्क-वितर्क और समस्याओं को अध्यात्म के द्वारा ही दूर किया जा सकता है। अध्यात्म भारतीय संस्कृति के प्राण हैं और भारतीय संस्कृति तो सम्पूर्ण वसुधा के प्राण हैं। अतः सनातन काल से भारत की संस्कृति ही मनुष्य जाति को आदर्शों, मर्यादाओं, प्रेम, त्याग और मानवीय मूल्यों का पाठ पढ़ा रही है …।

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