लंबे समय के बाद भी पलायन के दर्द से नहीं उबर पा रहा कैराना

शामली । चार वर्ष में चौथी बार चुनावी परीक्षा को तैयार उत्तर प्रदेश का कैराना पलायन व दंगों के दर्द से उबर नहीं पा रहा है। शामली जिले से पलायन कर चुके परिवारों की वापसी न होने का सवाल अब भी खड़ा है।

उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर तथा शामली में दंगों के दौरान हजारों परिवारों के विस्थापन की पीड़ा कैराना से अभी कम नहीं हुई है। चुनावी जंग में पुराने जख्म कुरेदने से क्षेत्रवासियों में डर भी बना है। मिश्रित आबादी में अब भी मकान बिकाऊ हैं और आसपास के इलाके में पूंजी निवेश के लिए कोई राजी नहीं। सियासी रंजिश चबूतरों से निकल कर गांव-गांव पंचायतों तक पहुंच रही है और धुव्रीकरण की कोशिशों में स्थानीय मुद्दे पीछे छूटते दिख रहे हैं।

भाजपा की उम्मीदवार मृगांका सिंह और समाजवादी पार्टी समर्थित राष्ट्रीय लोकदल की प्रत्याशी तबस्सुम हसन के समर्थन में बाहरी नेताओं के बड़ी संख्या में जमावड़े से स्थानीय लोगों की बेचैनी बढ़ी है। बड़ौत के भट्टे से ईंट खरीदकर लौट रहे राजसिंह का मानना है कि गत डेढ़ वर्ष में दहशत में कुछ कमी जरूर आई परंतु अभी हालात पूरी तरह ठीक नहीं हैं। जिला कचहरी में मुकदमों की फाइलों में उलझे एडवोकेट मेहरबान कुरैशी का कहना है कि कैराना को कबाड़ बनाने वाले असामाजिक तत्वों और गुंडागर्दी करने पर लगाम लगी है परंतु अभी तक सब कुछ सामान्य नहीं है। पलायन कर गए लोग अभी वापस होना नहीं चाहते क्योंकि उनका भरोसा जीतने में अभी वक्त लगेगा।

पानीपत में जाकर कारोबार कर रहे पीयूष बंसल का मानना है कि वर्षो के बिगड़े हालात आसानी से नहीं सुधरेंगे क्योंकि मौका परस्त और जातिवादी राजनीति करने वाले अपने हितों में क्षेत्रीय विकास की बलि चढ़ाते हैं।

कैराना जिसे दुनिया शास्त्रीय संगीत के किराना घराना के नाम से भी जानती है, जोड़तोड़ व अवसरवाद की राजनीति की प्रयोगशाला बनी है। आरोप-प्रत्यारोप की प्रतिस्पर्धा है। कैराना में 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के प्रयोग भी किए जा रहे हैं। प्रयोगशाला बने कैराना के लिए यह फिक्र नहीं कि करीब डेढ़ लाख की आबादी वाले कस्बे में कोई पेट्रोल पंप नहीं है। यहां कोई नया उद्योग धंधा स्थापित होना तो दूर, परंपरागत हैंडलूम और वस्त्र छपाई के कारोबार को बचाने की कोशिशें भी नहीं हो रही हैं। आज भी हजारों लोग प्रतिदिन यमुना पार कर हरियाणा में दिहाड़ी मजदूरी के लिए जाते हैं।

सोशल मीडिया पर जंग

गांवों में पंचायतों का सिलसिला आरंभ होने के साथ ही सोशल मीडिया पर भी चुनावी सक्रियता बढ़ी है। पुराने भाषणों व बयानों की क्लिपिंग सियासी माहौल गर्माने का अहम जरिया बन रही है। इसके चलते दंगों में करीब 25,000 लोगों का विस्थापन का दर्द फिर उभरने लगा है। 346 से अधिक परिवारों का पलायन का मुद्दा भी तूल पकड़ रहा है। कैराना की जीत पर पाकिस्तान और कश्मीर में आतिशबाजी जैसे बयान धुव्रीकरण को हवा दे रहे हैं। युवा विक्रम पंवार कहते है कि देश बचाना है तो जातिवाद से ऊपर उठना होगा।

मान मनौव्वल के लिए पंचायतें

अब तो पंचायतों का सिलसिला तेज हो गया है। नाराज लोगों को मनाने के लिए बैठकें होने लगी हैं। हसन परिवार में एकता कराने में नाकाम रही पंचायत का एक वीडियो भी वायरल हो रहा है। वीडियो में विधायक नाहिद हसन अपने चाचा व लोकदल प्रत्याशी कंवर हसन से समझौते की नाकाम कोशिशें कर रहे हैं। वहीं, खाप चौधरियों पर दर्ज मुकदमों की वापसी का मुद्दा भी पंचायतों में गर्माया है। बकाया गन्ना मूल्य भुगतान को लेकर किसानों का गुस्सा ठंडा करने की कोशिशें भी पंचायतों में हो रही है। किसान नेता सतेंद्र तोमर का कहना है कि गन्ना की अत्याधिक पैदावार होने के बावजूद किसान का समस्त गन्ना पेराई कराना उपलब्धि है।

बसपा-कांग्रेस पर निगाहें

रालोद व सपा कीसंयुक्त उम्मीदवार तबस्सुम हसन के समर्थन में प्रचार करने के लिए बसपा या कांग्रेस कार्यकर्ताओं में उत्साह अभी नहीं दिख रहा। बसपा के एक नेता का कहना है कि अभी राष्ट्रीय अध्यक्ष के निर्देश का इंतजार है। कांग्रेस कार्यकर्ता भी तबस्सुम के मंच पर जाने से कतरा रहे हैं। पूर्व विधायक पंकज मलिक का कहना है कि भाजपा का समर्थन संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस व बसपा के रुख पर सबकी निगाह लगी है। उधर, गन्ना राज्य मंत्री सुरेश राणा का दावा है कि भाजपा जीतेगी और 2019 के लोकसभा चुनाव की तस्वीर भी स्पष्ट हो जाएगी।

कैराना संसदीय सीट-कब कौन विजेता

1962- निर्दलीय

1967- सोशलिस्ट पार्टी

1971- कांग्रेस

1977- जनता पार्टी

1980 -जनता पार्टी (सेक्युलर)

1984 -कांग्रेस

1989-जनता दल

1991-जनता दल

1996- सपा

1998- भाजपा

1999-रालोद

2004- रालोद

2009-बसपा

2014-भाजपा।

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