पूज्य सद्गुरुदेव अवधेशानंद जी महाराज आशिषवचनम्

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
            ।। श्री: कृपा ।।
????  पूज्य सद्गुरुदेव जी ने कहा – प्राकृतिक नियमों का निर्वहन, सैद्धांतिक निष्ठा, पारमार्थिक प्रवृत्ति और इष्ट के प्रति समर्पण-भावना जीवन सिद्धि के अचूक साधन हैं…! जीवन की दिव्यता के लिए हिमालय पर जाने की जरूरत नहीं। यह दिव्यता हमें जन्म से मिली हुई है, बस आवश्यकता है तो उसे जाग्रत करने की। हमें जो कुछ मिला वह अनुपम और दिव्य है। कुछ प्राप्त करना है तो सही दिशा में प्रयास करना चाहिए। सबसे बड़ी चुनौती स्वयं को जानना है। जीवन में सबसे कठिन काम है – सरल बनना। पूज्य आचार्यश्री जी ने कहा कि हम अच्छा दिखना चाहते हैं, अच्छे बनना नहीं। दूसरों को बदलना संभव नहीं, इसलिए परिवर्तन स्वयं में लाएं, और यह साहस का काम है। दिव्यता पाने के लिए समय का प्रबंधन भी जरूरी है। जिसके पास कोई सैद्धान्तिक निष्ठा नहीं परम्परा का ज्ञान नहीं है। जो स्वयं पर आत्मनियंत्रण नहीं कर सकते है, यह वो प्राणी हैं जो परम्परा से विलग हैं। क्रोध से बड़ा मनुष्य का कोई शत्रु नहीं है। क्रोध पर जिनका नियंत्रण नहीं है, जरा-जरा सी बात पर जो क्रोध करे तब समझना कि वह हारा हुआ व्यक्ति है। क्रोध कुछ और नहीं अपनी अपात्रता का ही नाम है। विवेक के आभाव में क्रोध का जन्म होता है। अतः ज्ञान से क्रोध नियंत्रित होगा। जिसके पास धर्म नहीं है, वह काम और क्रोध पर नियंत्रण नहीं कर सकता है। एक बात ध्यान रखना काम में, जगत की वस्तु और पदार्थों में यदि रस है तो उससे अनंतगुणा ज्यादा रस भागवत रस प्राप्ति में है। इस प्रकार राम नाम में ब्रह्मरस समाया हुआ है…।
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – आहार में असावधानी, प्राकृतिक नियमों की उपेक्षा और शक्ति का अपव्यय ही स्वास्थ्य में गिरावट के प्रधान कारण होते हैं। जो लोग अपने स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान देते हैं और स्वास्थ्य के नियमों का ठीक-ठीक पालन करते हैं, वे सुदृढ़ एवं निरोग बने रहते हैं। मनुष्य का मन शरीर से भी अधिक शक्तिशाली साधन है। इसके निर्द्वंद्व रहने पर मनुष्य आश्चर्यजनक रूप से उन्नति कर सकता है। किंतु यह खेद का विषय है कि आज लोगों की मनोभूमि बुरी तरह विकारग्रस्त बनी हुई है। चिंता, भय, निराशा, क्षोभ, लोभ एवं आवेगों का भूकंप उन्हें अस्त-व्यस्त बनाए रखता है। यदि इस प्रचंड मानसिक पवित्रता, उदार भावनाओं और मनःशांति का महत्व अच्छी तरह समझ लिया जाए तथा निःस्वार्थ, निर्लोभ एवं निर्विकारिता द्वारा उसको सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया जाए तो मानसिक विकास के क्षेत्र में बहुत दूर तक आगे बढ़ा जा सकता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि केवल परमात्मा के पूजन, ध्यान, स्मरण में लगे रहना ही भक्त होने का लक्षण नहीं है। भक्त वह है, जो द्वेषरहित हो, दयालु हो, सुख-दु:ख में अविचलित रहे, बाहर-भीतर से शुद्ध, सर्वारंभ परित्यागी हो, चिंता व शोक से मुक्त हो, कामनारहित हो, शत्रु-मित्र, मान-अपमान तथा स्तुति-निंदा और सफलता-असफलता में समभाव रखने वाला हो, मननशील हो और हर परिस्थिति में खुश रहने का स्वभाव बनाए रखे…।
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – श्रद्धा जीवन का मूल मन्त्र है। जैसे-जैसे वो जगती जायेगी हमारी स्वीकृति, हमारी मान्यताएं विस्तार पाती जायेगी। जैसे ही भीतर श्रद्धा आती है वह पत्थर के भीतर हलचल पैदा कर देती है। विश्वास हमारे भय को छिनता है। दूसरों की सेवा सबसे बड़ा धर्म है और दूसरों को कष्ट देना सबसे बड़ा पाप। मानव जीवन की सार्थकता तभी है, जब दूसरों के उत्थान के लिये जीया जाये। धर्म अभावों को छीनता है और तृप्ति का अनुभव  कराता है। कल को सुधारने के लिए हमारी प्रतिकूलताओं पर प्रहार करता है एवं अनुकूलताओं  को प्रदान करता है। धर्म में व्यवस्था है। धर्म का पहला प्रभाव अभयता है। धर्म धारण करने का फलादेश है – अभयता। अभयता से आपके अन्दर का भय चला जायेगा, संदेह चला जायेगा। आप अपने से पूछ कर देखिये – क्या हमें भय लगता है?’  जी हाँ ! खो जाने का भय – सुख, सम्पति, मान, यश, सुंदरता, स्वास्थ्य और भी कईं चीजें खो ना जाये हमारी। अभयता की प्राप्ति सत्व की शुद्धि से आएगी। जब हमारे अन्दर सात्विकता, पवित्रता आएगी एवं आहार की पवित्रता से वचन की शुद्धि आएगी तब विचार की शुद्धि आएगी। और, पवित्र आहार से, धर्म, शील, सदाचार, अभयता, संतोष सब आहार की पवित्रता से आएगा। अतः हमारा आहार पवित्र हो …

Comments are closed.