पूज्य सद्गुरुदेव अवधेशानंद जी महाराज आशिषवचनम्

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
           ।। श्री: कृपा ।।
🌿 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं देते हुए कहा – नारी परमात्मा के संकल्प की साकारता और प्रथम कृति है ! नारी आदया है, शक्ति है, जगदम्बा है, माँ है, सम्मान है, गौरव है और अभिमान है। नारी ने ही ये रचा विधान है। ये लक्ष्मी, ये सरस्वती यही दुर्गा का अवतार है, ये अनुसूया, यही सावित्री यही काली रूप का वैभव है। रानी लक्ष्मीबाई जैसा साहस इसमें मीराबाई जैसा प्रेम है, पद्मावती जैसा जौहर इसमें और दुर्गावती जैसा पराक्रम है। कदम से कदम मिलाकर चलना, सैन्य व पराक्रम में पीछे न हटना, बुलंद हौसलों का परिचय देकर अरुणिमा और नीरजा का हो रहा गान है। सुर सरगम का सार लता का, सुंदरता में ऐश्वर्या है छुआ आसमान को। यही पालनहार हमारी, यही हमारी जननी है, इसका कदम है विकास के पथ में, यही हमारी धन की देवी महालक्ष्मी विश्वस्वरूपा, जगजननी। इसके चरणों की रज को मस्तक पे हमने लगाया है। वात्सल्य सरोवर सी बहती वह, जीवनभर सब सहती वह, त्याग तपस्या की देवी वह, हर कुटुंब की है सेवी वह।करती है जिस साहस से, हर घाव को सहन नारी हर अवस्था में महान है। अतः चर-अचर दृश्य-अदृश्य और सकल विद्यमान सृष्टि की आधारभूता शक्ति को सहस्त्र नमन ..!
🌿 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – जहां नारी का सम्मान होता है वहां देवता भी निवास करते हैं। कोई भी राष्ट्र तबतक विकसित नही हो सकता है जब तक उस देश की महिलाएँ भी देश के विकास में कंधे से कन्धा मिलाकर न चलें। पुरुष जानता अधिक है, पर स्त्री समझती अधिक है। नारी का जीवन यानी संतोष की परिभाषा है। एक स्त्री ही ऐसी होती है जो बड़े से बड़े दुःखों के पहाड़ को आसानी से ढो लेती है। नारी का जीवन त्याग को ही दर्शाता है। जहां नारी का सम्मान नही होता है, उस समाज और पशु में कोई अंतर नही होता है। लज्जा स्त्रियों का गहना है। एक स्त्री से ही घर की शोभा बनती है। महिला शक्ति का सम्मान नहीं, तो प्रगति नहीं। शक्ति उपासना का भारतीय चिंतन में बहुत बड़ा महत्व है। शक्ति ही संसार का संचालन कर रही है। शक्ति के बिना शिव भी शव की तरह चेतना शून्य हैं। स्त्री और पुरुष शक्ति और शिव के स्वरूप ही माने गए हैं। भारतीय उपासना में स्त्री तत्व की प्रधानता पुरुष से अधिक मानी गई है। नारी शक्ति की चेतना का प्रतीक है। साथ ही यह प्रकृति की प्रमुख सहचरी भी है जो जड़ स्वरूप पुरुष को अपनी चेतना प्रकृति से आकृष्ट कर शिव और शक्ति का मिलन कराती है। साथ ही संसार की सार्थकता सिद्ध करती है। दुर्गा सप्तशती में ‘त्वमेव संध्या सावित्री, त्वमेव जननी परा …’ इत्यादि अनेक श्लोकों के द्वारा शक्ति के शाश्वत स्वरूप का उल्लेख किया गया है। गंभीरता से विचार करने पर यह सिद्ध होता है कि जितने भी अवतार हुए हैं उनका एक निश्चित लक्ष्य होता है। चाहे वह परमहंस रूप में तत्व ज्ञान समाज को देना हो अथवा आसुरी शक्तियों का दमन कर धर्म की प्रतिष्ठा करना। इसी प्रकार इतिहास में प्राचीन और आधुनिक काल शक्ति आराधकों के उदाहरणों से भरा हुआ है, जो हमें विश्वास दिलाता है कि राष्ट्र और धर्म को बचाते हुए परम पुरुषार्थ को प्राप्त करना है तो शक्ति की आराधना करनी ही होगी …।
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