पूज्य सद्गुरुदेव अवधेशानंद जी महाराज आशिषवचनम्

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
          ।। श्री: कृपा ।।
🌿 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – जैसे उत्तप्त जल में वाष्प के कारण स्वयं का प्रतिबिम्ब दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार त्रिविध ताप प्रसूत लौकिक अभीप्साओं के कारण साधक आत्म-साक्षात्कार से वंचित रह जाता है ..! आंतरिक शांति व्यवहारिक दृष्टिकोण, ईमानदारी, करुणा और परोपकार के सिद्धांत का पालन करने से प्राप्त होती। जहाँ शांति है, वहाँ विकास है। जहाँ विकास है, वहाँ सुख है। इसलिए अमूल्य शांति के लिए सबसे पहले हमें अपने आप को देखना होगा। अपने बारे में जानना होगा। मैं कौन हूं? कहाँ से आया हूं? और, हमारे अंदर कौन-कौन सी शक्तियाँ हैं, जो हम अपने अंदर ही प्राप्त कर सकते हैं? परम आनंद व शांति का सागर है – परमात्मा। हम आत्माएँ परमात्मा की संतान हैं। जब हमारे अंदर शांति आएगी तो हमारा विकास होगा। शांति मधुरता और भाईचारे की अवस्था है, जिसमें बैर अनुपस्थित होता है। शांति एक दीप है, इस कोलाहल भरे विश्व में प्रकाश का। शांत मन में ही ज्ञान का अवतरण होता है। शांत स्थिर झील में हम अपना प्रतिबिंब देख सकते हैं। अस्थिर और अशांत झील में लहरें उत्पन्न होने पर फिर उसमें कोई अपना प्रतिबिंब नहीं देख सकता। अतः प्रतिबिंब देखने के लिए झील के शांत होने का इंतजार करना ही पड़ेगा …।
🌿 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में दुष्प्रवृत्तियाँ सबसे अधिक बाधक है। तपश्चर्या का उद्देश्य मनुष्य को शील स्वभाव, सहृदय और सद्प्रवृत्तियों में रुचि लेने वाला बनाना होता है। इच्छाओं का स्वेच्छापूर्वक दमन करना सीख जाएं तो पग-पग पर आने वाले इन्द्रिय प्रलोभनों से वह बच सकता है। तपश्चर्या से इन्द्रियाँ वशवर्ती होती है और विषयों पर मनुष्य का स्वामित्व होता है। आत्म-कल्याण के लिये यह स्थिति बहुत आवश्यक है। मनुष्य के जीवन में तप शक्ति का स्रोत माना जाता है। तपश्चर्या द्वारा मनोनिग्रह के साथ ही साथ शारीरिक, मानसिक और आत्मिक बल बढ़ता है। शक्ति का संचय जितनी द्रुतगति से होगा, आत्म-विकास की प्रक्रिया भी उतना ही शीघ्रगामी होगी। शास्त्रकार ने कहा है “दिव मारुहत तपसा तपस्वी …” अर्थात् तप करो, बिना तप किये हुये आत्म-दर्शन नहीं हो सकता है। अतः तप का महत्व भारतीय संस्कृति में इसीलिये भी अत्यधिक है कि उससे सुषुप्त शक्तियों का विकास होता है …।
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 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – जप और तप की महिमा का शास्त्रों में भंडार भरा पड़ा है। दोनों का महत्व एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर बताया गया है। दोनों ही आत्म-साक्षात्कार के दो आवश्यक अंग हैं। यह यज्ञ के समान बताये गये हैं और आत्मिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये इनका अभ्यास आवश्यक बताया गया है। जप मनोनिग्रह के उद्देश्य के लिये और तप शक्तियों के जागरण के लिये। इस प्रकार की स्थिति बन जाये तो आत्म-कल्याण की उच्च कक्षाओं में अग्रसर होना आसान हो जाता है। साधना की बढ़ती हुई कठिनता के अनुरूप शक्ति और सामर्थ्य जप और तप द्वारा पूरी होती है। साधना की इस वैज्ञानिक पद्धति को छोड़कर कोई भी व्यक्ति आगे नहीं बढ़ सकता। इसलिये यह नहीं मानना चाहिये कि जप और तप व्यर्थ की बातें हैं, वरन् उनका प्रभाव मनुष्य जीवन पर तत्काल परिलक्षित होता है और उस प्रभाव के क्रमिक विकास द्वारा वह आत्म-साक्षात्कार की स्थिति तक जा पहुँचता है। इस क्रम में और भी अनेकों प्रकार की साधनायें प्रयुक्त होती हैं, किन्तु उनका मूल जप और तप ही है। इस प्रकार इन दो पहियों के सहारे ही आत्म-विकास की यात्रा पूरी होती है। अतः इन्हें लक्ष्यवेध का मुख्य अंग मानकर अपनाना चाहिये …।
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