पूज्य सद्गुरुदेव अवधेशानंद जी महाराज आशिषवचनम्

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
           ।। श्री: कृपा ।।
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 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – वास्तव में धन्य वही है जिसने जीवन के उच्च उद्देश्य को पहचाना है। मन में विजय का विश्वास आते ही कठिन सरल होने लगता है, जैसे ही हमारा मन शुभ-संकल्पित, सकारात्मक और पारमार्थिक होता है वैसे ही हमारे आस-पास का परिवेश सहज, माधुर्य-सम्पन्न एवं आत्मीय-भाव से आप्लावित होने लगता है। आत्म-संयमी व्यक्तियों में सर्वदा उत्साह, धैर्य और विवेक रहता है। आत्म-संयम को ही मन की विजय कहा गया है। गीता में मन विजय के दो उपाय बताए गए हैं – अभ्यास और वैराग्य। यदि व्यक्ति प्रतिदिन त्याग या मोह-मुक्ति का अभ्यास करता रहे, तो उसके जीवन में असीम बल आ सकता है। अतः सकारात्मक रहें। जीवन सिद्धि के लिए मन आध्यात्मिक अनुशासन में रहे, इसके लिए आप संयम का हथौड़ा और विवेक की छैनी के द्वारा भविष्य को आकार दे सकते हैं। ‘कर्म’ और ‘मन’ की महत्ता पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा कि सच्चा भक्त परमात्मा से सदैव संयम, विवेक, सद्-कर्म और शुभ-संकल्प की शक्ति पाने की प्रार्थना करता है। मन को चट्टान की तरह दृढ़ बनायें ताकि वह भटके नहीं। मन के अधीन रहने के कारण ही हम मनुष्य कहलाते हैं, क्योंकि मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण बनता है, इसलिए मोक्ष प्राप्ति के लिए मन पर विजय पाना अति आवश्यक है …।
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 पूज्य “आचार्यश्री जी” ने कहा – अध्यात्म हमें यह सिखाता है कि कैसे हम सुख और दु:ख में संतुलन बनाएं रखें। मनोगत भाव-विचार ही जीवन की दिशा एवं दशा तय करते हैं। जीवन उत्कर्ष-उन्नयन के लिए मन को शुभ-संकल्प और पवित्र स्वच्छ विचारों से संपन्न रखें साथ ही अपना परिवेश भी बाह्यन्तर स्वच्छ पवित्र रहे। जिनका मन निर्मल होता है, अर्थात् मन, वाणी और कर्म से जो एक होते हैं, जो भीतर और बाहर से एक हैं, वे ही भगवत्ता को प्राप्त करते हैं। मन-वचन-कर्म में एकता, भाव-शुचिता, सत्-कर्म प्रीति और पूर्ण समर्पण ही साधना का सार है। विशुद्ध ब्रह्मलोक उन्हें ही प्राप्त होता है जिनके अन्तःकरण में असत्य, छल, कपट और कुटिलता नहीं है। सत्य का चिन्ह “मन, कर्म और वचन की एकता है”। “वां मनर्स्कमणाँ यथार्थं सत्यम् …”! जो बात मन से हो वही वचन से भी प्रकट की जाए और जो वचन कहा जाए वही कार्य रूप में भी हो; तो इस प्रकार की त्रिविध एकता ही सत्य का लक्षण है। सत्य को वाणी का तप कहा गया है। जो लोग मन, वाणी और कर्म की अभेदता साध लेते हैं, उन्हें सत्य का साक्षात्कार अवश्य होता है। साधना में निराभिमानिता होना चाहिए। आहार व विचार की शुद्धता, चिंतन की पारदर्शिता भगवद् प्राप्ति के सरल उपाय हैं। “पूज्य आचार्यश्री” जी कहा करते हैं कि स्वभाव जितना सरल, कुंठामुक्त, पूर्वाग्रह से रहित, शांत तथा सत्याचरण से युक्त होगा, मनुष्य उतना ही सहृदय होगा। समर्पण सर्वोत्तम साधन है। इस प्रकार मन-वचन-कर्म से समर्पित साधक अभयता और आनंद का अधिकारी बन जाता है …।
🌿 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मनसा, वचन, कर्म की एकता-पवित्रता, सत्संग, सन्त-सन्निधि और समर्पण ही सर्वोत्तम साधन है। मन, वचन और कर्म की एकता का नाम ही सत्य है और सत्य परमेश्वर का रूप है। सत्य ही अमोघ साधन है। सत्य का संग करना एवं अपने जीवन में सत्यनिष्ठा को धारण करना ही साधक का लक्ष्य होना चाहिए। सत्संग से प्राप्त अधिक सात्त्विकता साधना में सहायक होती है। हमेशा बड़े लक्ष्य बनाएं, आप उतने ही बड़े हैं जितने बड़े आपके विचार व लक्ष्य। अतः अपने विचारों को हमेशा व्यापक व बड़ा रखें। सोच सीमित न होने दें। धन नहीं मन की उदारता से बड़े बनें। मनुष्य होने का अर्थ है – अनंतता को प्राप्त करना। और, अनंतता एकाग्रता से प्राप्त होती है। एकाग्रता बड़ी साधना है, बड़े लक्ष्य को भेदने के लिए। एकाग्रता के लिए स्वयं को जानना आवश्यक है। स्वयं को आप जितना जानेंगे उतने ही आनंदमय हो जाएंगे। आपका चित्त, मति, गुण, धर्म, प्रकृति, चौकन्नापन एवं विवेक सब एक जगह होना ही एकाग्रता है। इसके बिना मनुष्य की चेतना बिखरी रहती है। सच्चा भक्त परमात्मा से सदैव संयम, विवेक, सद्-कर्म और शुभ-संकल्प की शक्ति पाने की प्रार्थना करता है। इसलिए अपने मन को चट्टान की तरह बनाओ ताकि वह भटके नहीं। मन के अधीन रहने के कारण ही हम मनुष्य कहलाते हैं और मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण बनता है, इसलिए मोक्ष प्राप्ति के लिए मन पर विजय पाना अति आवश्यक है। मनुष्य के भीतर यदि प्रेम, करूणा, दया, उदारता आदि गुण नहीं है तो यह एक प्रकार से विकलांगता है। और, यह विकलांगता सत्संग से ही दूर हो सकती है। मनुष्य जीवन को सत्संग से आकार दिया जा सकता है। इस प्रकार संयम का हथौड़ा और विवेक की छैनी द्वारा आप अपने भविष्य को आकार दे सकते हैं और उन्हें दिव्य बना सकते हैं …।
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