पूज्य सद्गुरुदेव अवधेशानंद जी महाराज आशिषवचनम्

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
          ।। श्री: कृपा ।।
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 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – जहाँ आस्था है, वहीं रास्ता है। आस्था, आत्म-विश्वास और कड़ी मेहनत से आप अपने जीवन के उद्देश्य को प्राप्त कर सकते हैं। अपने नेक उद्देश्यों के प्रति दृढ़ रहें ..! वर्तमान समय में नैतिक मूल्यों का पतन तेजी से हो रहा है। लोगों में ईश्वर के प्रति आस्था का अभाव बढ़ता जा रहा है। यही नहीं, मनुष्य-मनुष्य के बीच अविश्वास की दीवारें खड़ी हो रही है। इस समस्या के कुछ महत्वपूर्ण कारणों में से पहला कारण तो यही कि लोगों में चरित्रहीनता बढ़ी है। दूसरा नैतिकता घटी है। तीसरा कारण यह है कि लोगों का ईश्वर के प्रति विश्वास घटा है। संस्कारों के अभाव में नैतिकता का स्तर गिरना स्वाभाविक है। नीति से गिरा हुआ समाज कभी उन्नति नहीं कर सकता। आज के दिखावे के युग में आयोजन तो बहुत हो रहे हैं, किंतु उनके मानवीय सरोकार नहीं हैं। इसीलिए इन आयोजनों से कोई सामूहिक हित नहीं होता। अध्यात्म के बिना भौतिक उत्थान का कोई महत्व नहीं है। मन की पवित्रता के बिना तन की पवित्रता संभव नहीं है। हृदय के पवित्र भाव ही वाच् रूप में भक्ति, सरलता और आचरण के रूप में प्रकट होते हैं, किंतु इस आचरण के अभाव में सर्वत्र अराजकता दिखाई देती है। जीवन से सुख-शांति और सरलता मानो विदा हो चुकी है। ऐसे में परमात्मा का आधार ही सुख व आनंद प्राप्ति का कारण है। इस संदर्भ में गुरुनानक देव जी की वाणी अत्यंत सार्थक है – ‘नानक दुखिया सब संसार, सुखी वही जो एक अधार …’। परमात्मा की अनुभूति हमारे कल्याण का कारण है। इसलिए जीवन में ईश्वर के प्रति आस्था रखते हुए मानवीय नैतिक मूल्यों पर अमल करना चाहिए …। 
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 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – हमारे धर्मग्रंथों में अनेक ऐसे उदाहरण हैं जिनसे आस्था, नीति, चरित्र, भक्ति और अध्यात्म की महिमा प्रमाणित हो जाती है। पांडवों की जीत नीतिमार्ग की जीत है, संकटों के बाद भी वे विजयश्री प्राप्त करने में सफल रहे। गुरुगोविंद सिंह जी, छत्रपति शिवाजी महाराज आदि युगपुरुष धर्म के धरोहर हैं। वे न केवल वीरता के प्रतीक थे, बल्कि न्याय और नीति के अनुयायी थे। शत्रु तक उनके चरित्र और व्यवहार के कायल थे। ध्रुव और प्रह्लाद ईश्वर भक्ति के उदाहरण हैं। ईश्वर के प्रति आस्था के बल पर ही उन्होंने मनुष्य मात्र की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। विश्वास का जन्म तो मानव जन्म के साथ ही हो जाता है। जन्म होते ही उस नन्हें से बच्चे को पूरा विश्वास होता है कि कोई उसकी रोती हुयी आवाज़ को सुन कर उसे दूध पिलायेगा। अपने स्पर्श से उसे अहसास दिलायेगा कि इस दुनियां में वो संरक्षित है। इन्सान अपना पूरा जीवन विश्वास में ही तो जीता है। अपने हर कदम पर वो विश्वास करता है; कभी अपने जन्मदाता में, कभी इस प्रकृति में, कभी ब्राह्मण में और कभी अपने हर छोटे और बड़े कर्म में। वो विश्वास करता है कि जो भोजन वो खा रहा है, वो ही उसे जीवित रखेगा। वो विश्वास करता है कि जो पानी वो पी रहा है, वो उसकी प्यास बुझायेगा। वो विश्वास करता है कि जिस धरती पर वो चल रहा है, वो उसका बोझ सम्भालेगी। वो विश्वास करता है कि जिस वायु को अपने शरीर में श्वास के माध्यम से खींच रहा है, वो उसे प्राण ऊर्जा देगी। इस प्रकार वास्तव में विश्वास का सम्बन्ध हमारे रोम-रोम से है। जो टूटे वो श्वास है और जो कभी ना टूटे उसे विश्वास कहते हैं …।
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