पूज्य सद्गुरुदेव अवधेशानंद जी महाराज आशिषवचनम्

पूज्य “सदगुरुदेव” जी ने कहा – सत्कर्म, शुभ-संकल्प, विनय, जितेंद्रियता और आत्म-विश्वास सफलता के मूल मन्त्र हैं ..! सज्जनों की संगति से हृदय के विचार पवित्र होते हैं। सत्संगति करने से स्वार्थ भाव त्यागकर मनुष्य परमार्थ के लिए जीवन जीता है व जन-कल्याणकारी कार्य करता है। आज प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है और सुख प्राप्त करने के बाद भी आत्मसंतुष्टि नहीं होती। आज मनुष्य की कामना सुख प्राप्त करने की नहीं, जीवन जीने की है और शास्त्र भी इसका उल्लेख करते हैं। शास्त्रों में यह भी निहित है कि मनुष्य जीवन चाहता है, सुख चाहता है और इन दोनों के साथ-साथ सम्मान भी पाना चाहता है। मनुष्य को आज स्वयं का भी ज्ञान नहीं है। शास्त्रों में कहा गया है कि जिस दिन मनुष्य को अपना ज्ञान हो जाएगा तो उसका जीवन भी सफल हो जाएगा। गीता शास्त्र का स्वरुप है और अध्यात्म की तरफ ले जाने का एक मार्ग है। यह यथार्थ का बोध करवाता है और सत्य का ग्रंथ है। अध्यात्म का पहला सुख वर्तमान है तथा वर्तमान जीवन का मूल है। पवित्र ग्रंथ गीता किसी को प्रतिस्पर्धा करना नहीं सिखाता, यह ग्रंथ सिखाता है कि मनुष्य को स्वयं से ही प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए और इस स्पर्धा में स्वयं को ही जीतने का प्रयास करना चाहिए। गीता के पन्द्रहवें अध्याय में शास्त्र का उल्लेख किया गया है, शास्त्र मनुष्य को जीने की कला सिखाता है …। 
🌿 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – पौधा तब बढ़ता है जब उसे खाद और पानी दोनों ही उचित मात्रा में मिलते रहें। यदि बीज ऐसी जमीन में बोया जाये जिसमें उर्वरा शक्ति न हो, ऋतु की अनुकूलता ना हो तो अच्छा बीज होते हुए भी वह उगेगा नहीं। इसी प्रकार जमीन में खाद का आवश्यक अंश होने पर उगे हुए पौधे को यदि पानी न मिले तो भी वह बढ़ न सकेगा और मुरझा कर सूख जायेगा। इसी प्रकार सुसंस्कारों का पौधा ज्ञान रूपी खाद और कर्म रूपी जल पाकर बढ़ता है। दोनों में से एक की भी कमी रह जाय तो अन्तरात्मा में सन्निहित सुसंस्कारों को विकसित होने का अवसर न मिलेगा। दोनों पैर ठीक हों तो चलने की क्रिया में बाधा नहीं पड़ती, दोनों हाथ ठीक हों तो प्रस्तुत कार्यों को ठीक तरह करते रहना बन पड़ता है। यदि एक या दोनों पैर न हों तो चलने में भारी बाधा पड़ेगी। इसी प्रकार जिसके एक या दोनों हाथ न हों तो काम-काज करने में बड़ी कठिनाई होगी। आत्मिक उन्नति के लिए दान और कर्म का वही महत्व है जो चलने के लिए पैरों और कर्म करने के लिये हाथों का। आत्मोन्नति की प्रक्रिया सद्ज्ञान और सत्कर्म के अभाव में अस्त-व्यस्त ही रहती है। मनोभूमि को दूषित करने वाले विचारों का निराकरण प्रतिरोधी सद्विचारों द्वारा ही सम्भव है। इसलिए यह प्रयत्न रहना चाहिए कि स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन या जैसे भी सम्भव हो मन में केवल उत्कृष्ट कोटि की विचारधारा एवं भावना को ही स्थान मिले। इसी प्रकार अपने कार्यों को ऐसा निर्मल बनाया जाना चाहिए कि उनमें अनीति, छल, असत्य, पाप एवं अकर्म के लिए कोई स्थान ही न रहे…।
🌿 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – स्थिर व शांत अन्तःकरण में यथार्थ का बोध होता है।सत्संग, सन्त-सन्निधि और स्वाध्याय दृष्टि-दिशा प्रदाता हैं। जो जीवन की लक्ष्य सिद्धि और यथार्थ बोध के सहज प्रकाशक हैं। आत्मचिंतन का दौर प्रारम्भ होते ही चिंतन मनन व आचरण अपने आप ही सकारात्मक बनते जायेंगे। सकारात्मक चिंतन ही हमारे जीवन को सही दिशा प्रदान करने वाला होता है। मन का मेल चिंतन के प्रवाह में अपने आप प्रवाहित हो जाता है। हमारा मन स्फटिक की तरह पारदर्शी व समुज्ज्वल बन जाता है। जिसमे झांककर कोई भी अपना चेहरा निहारने में सफल हो सकता है। हमारा दर्शन हमारा दर्पण बन जाता है। आत्मचिंतन से बड़ा सुख संसार में नहीं है। यदि समाज में एवं संसार में रहकर व्यक्ति सुखी बनना चाहता है तो उसे आत्मचिंतन का द्वार हमेशा खुला रखना चाहिए। अंधकार को प्रकाश में परिवर्तित करने का उपाय बनता है – आत्मचिंतन व आत्मावलोकन। रात को प्रभात में बदलना ही अनासक्त चेतना का जागरण है। आसक्ति का विलोपन होना ही एक तरह से साधना की सफलता है। जब हमारा चिंतन बाहरी व पदार्थवाही होगा तब तक हम स्वस्थ नहीं बन पाएंगे। फिर एकमात्र उपाय हमारे सामने शेष रहता है – आत्मचिंतन का। जब हम इस सूत्र को आत्मसात करेंगे तब ही निषेचन का दौर प्रारम्भ होगा। हमारी मन की बीमारियों से जो विचार कुंठित हो गए थे वो बाहर निकलना प्रारम्भ होंगे। मन हल्का होगा तो चिंतन स्वस्थ होगा। वह चिंतन ही हमारे आत्मभिमुखी बनाने वाला होता है। आत्मचितन नवशक्ति के श्रोत को प्रवाहित करने वाला बन जाता है और हमारी साधना सफल व सार्थक बन जाती है। सच्ची प्रगति झूठे आधार अपनाने से उपलब्ध नहीं हो सकती। स्थायी सफलता और स्थिर समृद्धि के लिए उत्कृष्ट मानवीय गुणों का परिचय देना पड़ता है। जो इस कसौटी पर कसे जाने से बचना चाहते हैं, जो जैसे बने वैसे, तुरन्त, तत्काल बहुत कुछ प्राप्त करना चाहते हैं, उनके सपने न सार्थक होते हैं न सफल …।

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