गुजरात मॉडल पर लगी मतदाताओं की मुहर, भाजपा ने ली राहत की सांस

नई दिल्ली। सच कहा जाए तो विपक्ष के लिए गुजरात में भाजपा की विजय एक बड़े आघात की तरह है। गुजरात चुनाव में कांग्रेस के चुनाव अभियान तथा तीन अलग-अलग जातियों के नेताओं का साथ मिलने से विपक्ष में एक उम्मीद जगी थी। गुजरात चुनाव स्वयं विपक्ष के प्रचार से एक ऐसी सीमा रेखा सरीखा बन गया था जिसके आरपार यह तय होना था कि भविष्य की राजनीति की डोर भाजपा के हाथों होगी या विपक्ष के। जाहिर है यह सिद्धांत तय करने वाले मानेंगे कि भविष्य की राजनीति की डोर भाजपा के हाथों आ गई है। इसका व्यापक असर हमें कुछ ही दिनों में दिखाई देने लगेगा। 1यह प्रश्न निश्चय ही उठेगा कि आखिर जिस चुनाव में माना जा रहा था कि भाजपा के खिलाफ 22 वर्षो के सत्ता के विरुद्ध जो असंतोष है वह वोटों के रुझान में भी परिणत होगा वैसा क्यों नहीं हुआ? यह भी कहा जा रहा था कि नरेंद्र मोदी की मुख्यमंत्री के रूप में अनुपस्थिति का भी लाभ कांग्रेस को मिलेगा। यह भी कहा गया कि मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने जो निर्णय किए हैं उनके खिलाफ भी एक वातावरण है खासकर विमुद्रीकरण एवं जीएसटी के संदर्भ में और बहुमत जनता का वोट इससे निर्धारित होगा।

यह भी माना गया था कि कांग्रेस ने पाटीदार आरक्षण आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल, पिछछ़ों के नेता के रूप में उभरे अल्पेश ठाकोर तथा दलितों के नेता के रूप में सामने आए जिग्नेश मेवाणी को जिस तरह अपने साथ किया है उससे सामाजिक समीकरण भी उसके पक्ष में जा रहा है। और सबसे बढ़कर राहुल गांधी ने पार्टी के हिंदुत्व की छवि बनाने की जो सुविचारित कोशिश की उसका भी असर होने की उम्मीद की जा रही थी। कांग्रेस को इनका कुछ लाभ मिला है, पर अंतत: मामला जीत हार की होती है।1इस चुनाव परिणाम का पहला निष्कर्ष यही है कि गुजरात में 22 वर्षो के शासन के बावजूद भाजपा के खिलाफ वैसा सत्ता विरोधी रुझान नहीं था जैसा माना गया था।

यदि होता तो परिणाम दूसरा होता। मोदी की प्रदेश से अनुपस्थिति अवश्य है, पर प्रधानमंत्री के रूप में वे गुजरात की देखभाल कर रहे हैं यह भाव एक बड़े वर्ग के अंदर है और इसीलिए उनके बाद दो मुख्यमंत्रियों के आने के बावजूद भाजपा के पक्ष में मतदाताओं का बहुमत गया। इसी तरह जनता के अंदर केंद्र सरकार के विरुद्ध असंतोष की बात भी पूरी तरह प्रमाणित नहीं होती। यह तो स्वीकार कर सकते हैं कि विमुद्रीकरण से लोगों को परेशानियां हुईं। यह भी मानने में हर्ज नहीं है कि जीएसटी से व्यापारियों को अभी असुविधाएं हो रही हैं। किंतु ये परेशानियां और असुविधाएं उस सीमा तक शायद नहीं हैं कि व्यापारी वर्ग का बहुमत भाजपा के खिलाफ प्रतिशोधात्मक मतदान करे।

इसलिए वह राहुल गांधी द्वारा इसे गब्बर सिंह टैक्स कहने से प्रभावित नहीं हुआ। विमुद्रीकरण एवं उसके परिणामों से उबरे बगैर जीएसटी जैसा बड़ा कदम उठाने से समस्याएं पैदा हुई हैं, लेकिन सभी लोग यह मानने को तैयार नहीं हैं कि मोदी का यह कदम उनके खिलाफ था। जहां तक तीन युवा नेताओं को साथ लाने का प्रश्न है तो कई बार हम किसी व्यक्ति या नेता को जरूरत से ज्यादा प्रभावी मान लेते हैं। अब यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि तीनों युवा नेताओं का जितना प्रभाव अपनी जातियों या जाति समूहों पर माना जाता था उतना था नहीं। किसी मुद्दे या कारण पर आपके साथ आना, साथ संघर्ष करना एक बात है और आपके कहने पर किसी पार्टी को मतदान में समर्थन करना दूसरी बात।

हार्दिक ने पाटिदारों के लिए आरक्षण की आवाज उठाई तो एक बड़ा वर्ग उसमें साथ खड़ा हुआ। किंतु वह साथ आरक्षण के लिए था, राजनीतिक धारा का निश्चत करने के लिए नहीं। यह जरूरी नहीं कि जिन लोगों ने आरक्षण के लिए उनका साथ दिया वे उनके कहने से कांग्रेस के पक्ष में मतदान भी करें। हालांकि सौराष्ट्र में कांग्रेस ने अच्छा किया, फिर भी यह कहना होगा कि इन तीनों नेताओं का उनके प्रभाव और पकड़ का बढ़ा-चढ़ाकर मूल्यांकन किया। उसमें यही परिणाम आना था। राहुल ने कांग्रेस के चरित्र में जो सबसे बड़ा परिवर्तन करने की कोशिश की वह थी, भाजपा के समतुल्य स्वयं एवं पार्टी को हिंदुत्व के प्रति निष्ठावान साबित करना। वे करीब 27 मंदिरों में दर्शन करने गए और स्वयं को शिवभक्त तक कहा।

कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने उन्हें जनेउधारी हिंदू साबित करने के लिए एक चित्र भी प्रदर्शित किया। तो अब क्या माना जाए? शायद इससे कांग्रेस को कुछ लाभ हुआ। यह रणनीति इस मायने में ठीक हो सकती है कि उसकी मुस्लिमपरस्त पार्टी की जो छवि बन गई है वह टूटे, पर वह भूल गई कि भाजपा की सीमा तक वह हिंदुत्व के मामले में नहीं जा सकती। कांग्रेस का दुर्भाग्य यह भी था कि राहुल गांधी द्वारा यह हिदायत देने के बावजूद कि प्रधानमंत्री के बारे में असम्मानजनक भाषा का प्रयोग न किया जाए, मणिशंकर अय्यर ने मोदी को नीच आदमी कहकर भाजपा के हाथों ऐसा मुद्दा दे दिया जिसने लोगों के अंदर गुस्सा पैदा किया। नरेंद्र मोदी गुजराती हैं और कोई गुजराती उनके खिलाफ भी हो तो उनके लिए अपमानजनक शब्द सहन नहीं करेगा।

वास्तव में इस चुनाव के मुख्य कारक अंतत: नरेंद्र मोदी ही साबित हुए। लोगों के सामने मुख्य सवाल यही बना कि क्या किसी परिस्थिति में वे अपने प्रधानमंत्री को पराजित करना चाहेंगे? क्योंकि भाजपा की प्रदेश में पराजय का मतलब प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की पराजय हो गया होता। ऐसे में बहुमत लोगों ने प्रधानमंत्री के साथ जाने का निश्चय किया और भाजपा की जो भी गलतियां थीं वे छिप गईं। वैसे भी कांग्रेस ने अपना चुनाव प्रचार पिछले दो महीनों में आरंभ किया, जबकि भाजपा उत्तर प्रदेश चुनाव खत्म होने के साथ ही इसमें लग गई थी। मतदान केंद्र स्तर पर उसका संगठन विस्तारित था तथा पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने पूरा समय प्रदेश को ही दे दिया। ऐसी स्थिति कांग्रेस के साथ नहीं थी। इसमें यदि भाजपा की नहीं जीतती तो यह हैरत की बात होती।

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